क्या एक पूर्ण आत्मज्ञानी इनसान भी संसार में और लोगों की तरह ही रहता है ?

जी हाँ .

पर
क्यों
?

उसे
आत्मज्ञान होने पर भी सांसारिक कष्टों को सहने में क्या मजा आता है
?

क्यों की
परमात्मा इंसानी शरीरों के रूप में अपना किरदार पूरी ईमानदारी से निभाते है .
संसार परमात्मा का एक खेल है . जब हम जीव भाव की दृष्टि से इस संसार को देखते है
तो फिर हमें कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ते है और जब हम इस संसार को क्रियायोग ध्यान के
माध्यम से देखते है तो पूरा संसार बहुत सुंदर प्रतीत होता है . इसीलिए कहा है की
जैसी दृष्टि वैसी श्रष्टि या ज्या की रही भावना जैसी वान मूरत दिखे वैसी . अर्थात
दृष्टि बदलो श्रष्टि बदल जायेगी .

जो इनसान
आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो वह अपने हाथो को अब हाड मांश नहीं मानता है.
ऐसे इनसान को ही भगवत गीता में जो भगवान् कृष्ण ने कहा है की
व्यक्ति को अपने रहस्य किसी को नहीं बताने
चाहिए
का वास्तविक अर्थ समझ में
आता है.

गीता में लिखे इस
वाक्य का वास्तविक अर्थ यह है की जिस इनसान के मन में रहस्य छिपे होते है उसका मन
पूर्ण शांत नहीं रह सकता है . ये बात भगवान् ने मेरे उन मित्रों के लिए कही है जो
अभी मन की चाल से अवगत नहीं है . अर्थात यदि अभी आप मन को समझने का प्रयास कर रहे
है और धीरे धीरे आप शांत होते जा रहे है और आप को यह लगता है की अभी मै अपना रहस्य
किसी को बता दूंगा तो मेरे मन की शांति भंग हो जायेगी तो फिर आपको अपने रहस्य किसी
को नहीं बताने चाहिए . परन्तु जब यही रहस्य आप के मन की शांति को धीरे धीरे भंग
करने लग जाए और आप भीतर ही भीतर घुटने लग जाए और आप को अभी निराकार प्रभु पर भी
विश्वास नहीं है और आप किसी निर्जीव वस्तु को भी नहीं कह सकते तो फिर आप को पहले
ऐसे सच्चे गुरु की तलाश करनी चाहिए जिसे आप अपना रहस्य बता सके और गुरु से सही
समाधान लेकर आप भी गुरु की तरह आत्मज्ञान को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सके
.

जब तक हमें प्रभु
से दूरी का अनुभव होगा तब तक महान संतो के माध्यम से कही गयी बातों के पीछे छिपे
वास्तविक सत्यो का पता नहीं चल पायेगा और हम वेद शास्त्रों को लेकर एक दूसरे के
कपड़े फाड़ते रहेंगे . क्यों की आत्म ज्ञान का मतलब ही सत्य और अहिंसा का मार्ग होता
है .

अपनी
आत्मा से ज्ञान प्राप्त करने के लिए निम्न प्रकार से अभ्यास करे :

जिस भी अवस्था
में आपको रहने से सहजता का अनुभव होता है सबसे पहले आप उस अवस्था में आ जाए . अब
अपने आज्ञा चक्र को याद करे और यहां क्या क्या परिवर्तन हो रहे है उन्हें केवल
परमात्मिक अनुभूति के रूप में स्वीकार करे . अब अपनी श्वास को महसूस करे . पता करे
की यह कैसी चल रही है . सिर से लेकर पाँव तक में अपने मन का ध्यान लेकर आये . मन
एक शक्ति के साथ कार्य करता है . जिसे ध्यान कहते है . जब यही शक्ति मन की गलत
प्रोग्रामिंग के कारण ऊटपटांग काम कराने लगती है तो यही ध्यान मन के माध्यम से
अज्ञान में बदल जाता है . अर्थात ध्यान तो आप हर पल कर रहे है . मन आप की लगातार
ऊर्जा खच कर रहा है पर हमें यह समझना पड़ेगा की हम इस ऊर्जा की सहायता से हमारी
आत्मा की तरफ बढ़ रहे है या सांसारिक भोगों की तरफ. बिना ऊर्जा के हम मर भी नहीं
सकते है . क्यों की मरने का सही अर्थ रूपांतरण की क्रिया होता है .

आत्मज्ञान के बाद
हमें मोन शब्द का वास्तविक अर्थ समझमे आता है . जैसे एक आत्मज्ञानी के पास कोई
प्यासा व्यक्ति पानी मांगने आता है तो ऐसा आत्मज्ञानी यदि मुँह से बोलने में सक्षम
है तो यह कहता है की
जी अभी लेकर आता
हूँ
‘.
वह मन में एक पल
भी यह नहीं सोचता है की मै तो मोन हूँ इसे बोलकर कैसे कहू. मोन का वास्तविक अर्थ
मन को राग द्वेष में उलझने से मना करना है ना की किसी की या खुद की सेवा करने से
मना करना.

आप आत्मज्ञानी की
पहचान अपने आत्म ज्ञान से ही कर सकते है . इसलिए हमें यह नहीं समझना चाहिए की
आत्मज्ञानी इनसान संसार में रोजमर्रा के कार्य नहीं करता है . धन्यवाद जी .
मंगल हो जी . 

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