हमारे परम पिता
इसे निम्न प्रकार से समझा रहे है :
हमारे शरीर की
रचना एक विज्ञानं है . अर्थात आज हम शरीर को एक व्येज्ञानिक की तरह समझेंगे . परम
चेतना जो कण कण में प्रकाश के रूप में व्याप्त है , यही प्रकाश सघन होकर इस शरीर के रूप में प्रकट हो रहा है .
हमारे शरीर का मुख्य इंजिन सिर के पीछे वाले भाग में स्थित है . जिसे विज्ञानं की
भाषा में मेडुला कहते है . आध्यात्मिक भाषा में कूटस्थ कहते है और इसे प्रभु के
प्रेम का केंद्र भी कहते है . इसे परमात्मा का मुख भी कहते है . इसी मेडुला में
वह डीएनए कोड छिपा होता है जो यह निर्धारित करता है की यह शरीर रुपी रचना निरंतर
किस प्रकार से विकसित होगी . अर्थात हमारे शरीर का रंग कैसा होगा , क्या हमारी ऊंचाई होगी , क्या हमारा वजन होगा और हम कितना जीवन जियेंगे
इस शरीर के रूप में . परन्तु इसी मेडुला में वह कोड भी होता है जिसे यदि हम कैसे
कोड को चलाये यह समझ ले तो फिर हम डीएनए कोडिंग को भी परिवर्तित करने में सफल हो जाते
है . इसका एक मात्र उपाय क्रियायोग ध्यान का अभ्यास है . अभी हम वही सोच पाते है जो हमारे मेडुला में लिखा है और
उसी के अनुरूप हम व्यवहार करते है . जैसे हम शीशे में देखकर यह अनुभव करते है की
हमारा रंग सांवला है . तो फिर से हम एक स्मृति हमारे अवचेतन मन में जमा कर लेते है
और मन की आदत को दोहराने की प्रकृति के कारण यही सोच हमे दिनों दिन और सांवला
बनाती जायेगी . इससे सिद्ध होता है की जैसा हम सोचते है वैसे ही हम बन जाते है. अब
यदि किसी व्यक्ति के पैर में लखवा आ गया हो और वह अब चल नहीं सकता हो तो क्रियायोग
ध्यान के अभ्यास से एक समय बाद वह फिर से पहले से ज्यादा अच्छे से चलने लगता है .
अभ्यास की क्रिया के अंतर्गत वह निरंतर पहले यह कल्पना करता है की प्रभु की शक्ति
मेडुला में प्रवेश कर रही है और यही शक्ति शरीर के रीढ़ वाले भाग से होती हुई पैरो
में बह रही है . वह ध्यान की मुद्रा में बैठकर यदि यह अभ्यास करे की अब उसके पैरो
में थोड़ी थोड़ी हल चल हो रही है . तो होगा क्या की जो कोशिकाएं मृत हो गयी थी प्रभु
की चेतना के कारण फिर से उनमे जीवन प्रवाह शुरू होने लगता है . पर यह सब बहुत ही
धैर्य का काम है . आप प्रभु में कितना विश्वास रखते है इस पर निर्भर करता है .
इसलिए आप जैसा सोचेंगे वैसे ही आप बन जायेंगे .
धन्यवाद जी . मंगल हो जी .