भक्त और भगवान के बीच बातचीत – भाग 3

भाग 3

भक्त : हे भगवान
आप मुझे एक विचार के जीवन चक्र के बारे में बता रहे थे .

भगवान : ठीक समझा
आप ने वत्स . जैसे मैंने एक विचार(एक ऊर्जा कण ) प्रकट किया की मै एक ऐसी रचना का
निर्माण करू जिसके
8 पैर हो ,
2 आँखे हो , 2 कान हो अर्थात मै एक शरीर की रचना कर रहा हु जो विचार के
स्पंदनो के माध्यम से अपनी सरंचना बदलती रहती है . जिसे साधारण भाषा में कर्म कहा
जाता है . अर्थात जो मन किसी विचार को जैसा भजेगा (स्पंदन ) वह विचार वैसा ही
मूर्त रूप लेने लगेगा . जैसे किसी मनुष्य का मन मुझे साकार रूप में एक बहुत ही
सूंदर शिशु के रूप में देखने का विचार प्रकट करता है और बार बार इस विचार को
स्पंदित करता है पुरे मनोयोग से निरन्तर तो जैसे ही इस मनुष्य के मन के विचार की
पुनरावृति अधिकतम संख्या तक पहुंच जाती है तो मै इस मनुष्य को एक बहुत ही सूंदर
शिशु के रूप में दिखने लगता हु. जिसे आमतौर की भाषा मै
मुझे परमात्मा ने दर्शन दिया है कहा जाता है . और जैसे ही यह मनुष्य मेरा दर्शन पाकर अत्यंत
प्रसन्न हो जाता है और मेरे इस रूप से कोई नयी कामना नहीं रखता है तो मै अदृश्य हो
जाता हु . इस प्रकार इसके एक विचार का जीवन चक्र पूरा हुआ . अर्थात मै सुमद्र हु
,
उसमे से एक लहर प्रकट हुयी और थोड़ी देर बाद मुझ
में समां गयी . इसका मतलब एक लहर का जीवन चक्र पूरा हुआ .

भक्त : हे
परमपिता इसका मतलब तो हर एक व्यक्ति एक लहर ही है जो आप से प्रकट हुयी है
?

भगवान : बिलकुल
ठीक समझा वत्स . दिखने में तो मनुष्य
, पशु पक्षी , कीट पतंग अलग अलग
दीखते है पर है सभी एक . सभी मेरे से प्रकट होते है . अर्थात इन सभी जीवों में आपस
में जो सम्बन्ध है उसका आधार केवल मै हु . मतलब इनके शरीरों की सरंचनाये दिखने में
तो अलग अलग है पर हर एक शरीर के हर एक कण में केवल मेरा ही अस्तित्व है . मै ही
अलग अलग शरीर का रूप लेता हु . मेरे इन शरीर के रूपों की संख्या किसी मनुष्य को
मैंने
84  लाख बता रखी है तो किसी को कम ज्यादा . इसलिए वत्स आप को इस
संसार में जैसा दिख रहा है वैसा सच नहीं है . जैसे मै एक घर में लड़की के रूप में
जन्म लेता हु और दूसरे घर में लड़के के रूप में . और इन दोनों के घर वाले इनकी शादी
कर देते है . अब ये दोनों एक दूसरे को पति पत्नी समझने लगते है . दोनों के रूप में
मै ही हु. तभी तो कहते है की जीवन एक रंगमंच है जहा हर मनुष्य के लिए मुझे एक
किरदार निभाना होता है . अर्थात उस मनुष्य के रूप में मै ही हु .

भक्त : हे
परमात्मा जब आप इन दोनों पति-पत्नी के रूप में खुद हो फिर ये पति -पत्नी कभी एक
दूसरे को बहुत प्रेम करते है तो कभी एक दूसरे के साथ बहुत झगड़ा . जबकि आप तो आनंद
का स्वरुप हो भगवान.

भगवान : वत्स यह
सब मेरी माया के कारण होता है .

भक्त : हे
अन्तर्यामी ये माया क्या है
?

भगवान : वत्स कोई भी वस्तु जो सच में हो नहीं पर
दिखती हो. और ऐसे लगता हो की जो कुछ इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव हो रहा हो वैसा
ही सच हो. जैसे आप को कोई महल दिख रहा हो और बहुत ही सूंदर प्रतीत हो होता हो. पर
सच यह है मेरे वत्स की उस महल के रूप में भी मै ही हु .
और ठीक उसी प्रकार जैसे आप
की आँखों के सामने कोई दुर्घटना घट गयी हो और कई व्यक्ति उसमे घायल हो गए हो तो आप
के मन को वह दृश्य डरावना लगेगा . पर वत्स जैसा यह दृश्य आप को आँखों के माध्यम से
दिख रहा है वैसा सच नहीं है . इस दुर्घटना वाले दृश्य के रूप में भी मै ही हु .अब
बताता हु वत्स इन दोनों दृश्यों के माध्यम से मै आप के साथ क्या कर रहा हु . पहले
वाले दृश्य से मै आप को सुख की अनुभूति कराता 
हु
, और
दूसरे वाले दृश्य से मै आप को दुःख की अनुभूति कराता हु . पर सच यह है की इस दूसरी
घटना के रूप में भी मै ही हु . ये सुख और दुःख दोनों मेरी छाया मात्र है . जो
व्यक्ति मुझ में एकाग्र हो जाता है अर्थात उसके शरीर में सिर से लेकर पाँव तक में
एकाग्र हो जाता है और सभी शारीरिक अनुभूतियों को मेरी अनुभूति (आनंद
, ख़ुशी , विराटता
, परम सुख , दिव्य
प्रेम
, परमात्मा , ईश्वर  ) कहकर , मानकर
अहसास करता है
,
स्वीकार
करता है वह व्यक्ति सुख दुःख से ऊपर उठ जाता है और मेरी माया को करीब से जानने
लगता है
. उसको धीरे धीरे मेरी माया का ज्ञान होने लगता है . और उसका यह ज्ञान
जैसे जैसे बढ़ता है वैसे वैसे उसको माया पर विजय प्राप्त होने लगती है . और धीरे
धीरे उसको माया को कैसे प्रकट करे इसका ज्ञान होने लगता है .

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