आलस्य भी एक प्रकार की शक्ति ही होती है पर हमारे अज्ञान के
कारण हम इसे स्वीकार नहीं कर पाते है . जैसे पत्थर में भी प्राण होते है पर
क्षुब्ध रूप में होते है ठीक इसी प्रकार से हमारा मन भी किसी विशेष प्रकार के भोजन
या अन्य पेय पदार्थ के सेवन करने से या किसी ऐसे वातावरण में रहने से जहाँ
नकारात्मक ऊर्जा की मात्रा ज्यादा हो तो हमारे मन में ऐसी तरंगे लगातार निर्मित
होती है जिनमे आपस में ऐसा कोई तालमेल नहीं रहता है ताकि हम किसी आकृति को साकार
रूप दे सके . अर्थात जब संचित कर्म ऐसे हो जिनमे
कोई नयापन ना हो , विकृत रचनाओं को हम हमारी
इन्द्रियों के माध्यम से लगातार सेवन कर रहे हो , कर्म
पर से विश्वास उठने लग जाए , या हमने
भौतिक चीजों से बहुत गहरा लगाव पाल लिया हो और अब इनके छूटने का डर सता रहा हो तो
हमारे शरीर और मन के ऊर्जा पैटर्न में सिंक्रोनाइजेशन (तालमेल) नहीं रहता है .
जब मन में उठने वाले विचारो के वेग को हम सहन नहीं कर पाते
है अर्थात जैसे हमे ज्ञात है की हर पदार्थ के अणुओं में लगातार टक्करै हो रही है
और इन टक्करों के प्रभाव से पदार्थ में वेग उत्पन्न होता है और इस वेग से वायु
पैदा होती है . ठीक इसी प्रकार से जब हमारा शरीर
तंत्र ऐसी अवस्था में आ जाता है की यह खुद अपनी रक्षा करने के लिए मेडुला में
स्थित प्राण शक्ति को अपनी कोशिकाओं को जीवित रखने के लिए शरीर की जो कोशिकाए अभी
शिथिल पड़ी हुयी है उनमे भेजता है तो हमारे मेडुला (दिमाग ) में प्राण शक्ति की कमी
होने लगती है . क्यों की मेडुला में प्राण शक्ति हमे वायुमंडल से मिलती है और उचित
मात्रा में तभी मिलती है जब हम सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्रता का अभ्यास करते
है . शरीर में इसी प्राण शक्ति की कमी के कारण हमे आलस्य की अनुभूति
होती है . अर्थात हमे आलस्य से घृणा नहीं करनी है . बल्कि आलस्य को ख़ुशी की शक्ति
के रूप में स्वीकार करने से मेडुला से प्राण शरीर के हर एक सेल में पहुंचने लगते
है और आप देखेंगे की जैसे ही प्राण कोशिकाओं को जीवंत कर देते है तो हमारे मन में
अब ख़ुशी की तरंगे उठने लगती है . कई बार तो आलस्य के वक्त हमारे मन में ऐसा एक
विचार आकर ही पुरे शरीर के आलस्य को एक पल में ही गायब कर देता है और हम खड़े होकर
कोई काम करने लग जाते है .
जब हम क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास करते है तो हमें यह
ज्ञान मिलने लगता है की आलस्य की तरेंगे किस
स्त्रोत से उठ रही है . जब हमें आलस्य के मुख्य स्त्रोत का ही पता चल जाता
है तो हम हमारी चेतना शक्ति का सदुपयोग करके इन तरंगो को सही दिशा देने में महारत
हांसिल करने लगते है . हमें यह पता चलने लगता है की कैसे मै अपने आप को आलस्य से
बाहर निकाल रहा हूँ और फिर आलस्य से बाहर आकर किस प्रकार से एक नयी रचना को आकार
दे रहा हूँ . अर्थात क्रियायोग ध्यान के अभ्यास से आलस्य की शक्ति रचनात्मक
शक्ति में रूपांतरित होने लगती है . अभ्यास के कारण आप की चेतना आप को वह भोजन
खाने से रोक देती है जिसके सेवन करने से आप के मन की तरंगे अव्यवस्थित होती है .
अर्थात अभ्यास के प्रभाव के परिणाम के रूप में आप वे सभी कार्य करने से अपने आप
रुकने लगते है जो आप को अधोगति की तरफ धखेल रहे थे . धन्यवाद
जी . मंगल हो जी .