जब हम क्रियायोग ध्यान का पूर्ण मनोयोग से और पूर्ण विश्वास
के साथ निरंतर अभ्यास करते है और इस संकल्प पर दृढ़ रहते है की केवल परमात्मा का
अस्तित्व है तो धीरे धीरे आप को अनुभव होने लगेगा की जिसे आप शरीर समझ रहे थे वह
तो लगातार परमात्मा की शक्ति से इस शरीर रुपी रचना के रूप में आप को दिखाई दे रहा
है . अर्थात हमारा पूरा शरीर परमात्मा की वह शक्ति जो कण कण में व्याप्त है से ही
प्रकट हो रहा है .
फिर हमे इस शरीर में हाड , मांस
, खून
, त्वचा
, बीमारी
, सुख
, दुःख
ऐसे तमाम प्रकार के अनुभव क्यों होते है ?
क्यों की जिस प्रकार से यदि हमारे ऊपर कोई बैठ जाए तो हमे
भार की अनुभूति होती है या एक मोटरसाइकिल दूसरी मोटरसाइकिल से टकरा जाए तो तेज
आवाज सुनाई देती है . ठीक इसी प्रकार पदार्थ का भी वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कण
लगातार दूसरे कणों से टकरा रहा है .
जैसे यदि हम अँधेरे में टोर्च जलाते है तो टोर्च से एक
प्रकाश बीम बाहर निकलती है और प्रकाश के एक एक कण मिलकर प्रकाश तरंग का रूप धारण
करके ऐसे अनेक प्रकाश तरंगे मिलकर टोर्च से उजाले के रूप में बाहर निकलती है और
हमे ऐसे लगता है जैसे टोर्च से घनीभूत प्रकाश निकल रहा हो .
ये कण आपस में टक्कर क्यों करते है ?
जब परम चेतना अपनी मर्जी से अपनी शक्ति का इस्तेमाल करके
अपना अलग अलग रूप प्रकट करना चाहती है तो इसे साकार रूप में बदलने के लिए यही
शक्ति परमात्मा की इच्छा के अनुसार घनीभूत होने लगती है . अर्थात इस पूरी सृष्टि
का निर्माण अपने आप हो रहा है . इसमें निरंतर निर्माण , सुरक्षा और
परिवर्तन हो रहे है .
जब हम क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास करते है तो हमे अनुभव
होने लगता है की जितने भी परिवर्तन हमारे शरीर में हमे अनुभव हो रहे है ये इन
प्रकाश के कणों की आपस में टक्कर के कारण ही है . जैसे किसी व्यक्ति को ज्यादा
सर्दी लगती है और किसी अन्य व्यक्ति को कम सर्दी लगती है . इसके पीछे का वास्तविक
कारण यह है की परमात्मा इन अमुक व्येक्तियों के रूप में अलग अलग तरीको से प्रकट हो
रहे है .
जैसे परमात्मा एक व्यक्ति को लम्बा और दूसरे व्यक्ति को
ठिगना प्रकट करना चाहते है . तो अब जो मेडुला से शक्ति प्रवेश करती है वह एक
व्यक्ति के लिए तो प्रकाश के घेरे लम्बे बनायेगी और दूसरे व्यक्ति के लिए छोटे
बनायेगी . जैसे हम चित्रकारी करते है तो सबसे पहले चित्र का बाहरी आकार बनाया जाता
है और फिर उसमे धीरे धीरे अन्य भाग जोड़े जाते है . तो जिस प्रकार से स्याही का एक
एक परमाणु मिलकर एक अणु बनाता है और एक एक अणु मिलकर स्याही की एक बूँद बनाता है
और एक एक बूँद मिलकर स्याही की हम एक छोटी शीशी भर लेते है और फिर इसी स्याही को
मारकर में भरकर चित्रकारी करते है तो आप खुद ही समझ जायेंगे की इस स्याही के
निर्माण के दौरान कितने परिवर्तन हुए है और ये परिवर्तन खुद स्याही को अनुभव हुए
है .
पर व्येज्ञानिक कहते है की हम सजीव है और
स्याही निर्जीव . पर यह पूर्ण सत्य नहीं है . क्यों की निर्जीव और सजीव दोनों ही
परम चेतना से अर्थात एक ऐसी सत्ता जो अपने आप में पूर्ण है से निर्मित हो रहे है .
बस फर्क इतना ही है की हमारे शरीर के ज्यादातर परिवर्तन दिखाई दे रहे है और पत्थर
में हो रहे परिवर्तन हमे दिखाई नहीं दे रहे है . पर पत्थर में भी सूक्ष्म रूप में
निरंतर परिवर्तन हो रहे है .
ये परिवर्तन ही कर्म संस्कार है . यदि हम निरंतर जाग्रति
में बने रहते है तो फिर हमे धीरे धीरे भारहीनता का अनुभव होने लगता है और एक समय
ऐसा आता है जब हमारे और इस शक्ति के बीच दूरी शून्य हो जाती है तो हमे अनुभव होता
है की हम अपने आप को जो शरीर मान रहे थे हम तो खुद ही शक्ति का साकार रूप है और
हमे जितने भी अन्य जीव जंतु नज़र आते है वे भी इसी शक्ति से प्रकट हो रहे है और हमे
अनुभव होता है की हमारे और अन्य जीवोँ के बीच दूरी शून्य है . पर जब तक परमात्मा
की इच्छा होगी हमे यह परिवर्तन अनुभव होते रहेंगे . पर जब हम पूर्ण समर्पण कर
देंगे तो समय , दूरी और द्रव्यमान
के पार चले जायेंगे तो फिर मृत्यु किसकी होगी . उस स्थिति में ना तो जन्म होता है
और ना ही मृत्यु . यही परम सत्य है . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .
Best