मै यह कैसे अनुभव करू की मेरे माध्यम से परमात्मा ही सबकुछ कर रहे है ?

इसे आप इसी क्षण
अनुभव कर सकते है
. आप अपना मुँह
औऱ नाक अभी बंद करके देखे औऱ तब तक देखते रहे जब तक दम नहीं घुटने लग जाए . अब आप
को कुछ समय बाद नाक या मुँह से श्वास लेनी ही पड़ेगी . यदि आप खुद कुछ कर रहे होते
तो फिर आप बिना श्वास के भी लम्बे समय तक जीवित रहते . अर्थात आप के जीवित होने का
प्रमाण ही यह है की आप अभी अपनी मर्जी से बिना श्वास के जीवित नहीं रह सकते है . इसका
मतलब आप यह श्वास किसी ओर के माध्यम से ले रहे है
.

ठीक इसी प्रकार
से जब आप के शरीर में कोई कट लग जाता है तो यह कट कुछ दिनों में अपने आप भरने लगता
है . यदि आप खुद इस कट को भर सकते होते तो आप यह करते की इसे धागे से सिल देते ओर
तुरंत खोल देते . तो क्या आप के शरीर का कट भर जाता .

नहीं .

जब एक धागा आप का
कहना नहीं मान रहा है तो फिर एक इंसान को आप अपना गुलाम कैसे बना सकते है . इससे
भी यह सिद्ध होता है की परमात्मा ही इस कट को भरते है .

कभी आप किसी को
समझा के देखना यदि आप की बात पूर्ण सत्य है तो वह व्यक्ति आप की बात को आसानी से
मान लेगा . ओर यदि आप झूठ बोल रहे हो तो वह इंसान कभी नहीं मानेगा .

अर्थात आप यदि
सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर जीवन की सभी क्रियाये करेंगे तो आप को धीरे
धीरे यह अनुभव होगा की जो मेने आज तक लोगों से सुना था उसमे सच कितना प्रतिशत है .

जब आप यह अभ्यास
करते है तो असल मायने में आपका जीवन ही अब शुरू होता है . कैसे
?

जैसे आप मंदिर
जाते है रोज ओर फिर दिन भर काम के दौरान आप का कई लोगों से झगड़ा होता रहता है ओर
आप इस तरह से अपना पूरा जीवन व्यतीत कर देते है .

अब आप कल से
मंदिर जाओ तो पूरी एकाग्रता के साथ जाना . आपको मंदिर से लौटकर आने में कल से
ज्यादा समय लगेगा .

क्यों
?

क्यों की अब आप
अवचेतन मन के माध्यम से मंदिर नहीं जा रहे हो बल्कि चेतन मन के साथ मंदिर जा रहे
हो . अब आप को यह ज्ञान होगा की आप मंदिर क्यों जा रहे है . क्या किसी ओर के कहने
से आप मंदिर जा रहे है या फिर आप खुद की मर्जी से मंदिर जा रहे है या फिर अपने आप
मंदिर जा रहे है .

आप को पता चलेगा
की आप अपने आप ही मंदिर जा रहे है . अर्थात परमात्मा खुद आप के रूप में इस शरीर के
माध्यम से मंदिर जा रहे है . अब आपको मूर्ति के समक्ष हाथ जोड़ने पर यह ज्ञान होगा
की मुझे किसी भी धर्म सम्प्रदाय  की निंदा
नहीं करनी है . सभी मेरे मित्र है . जीव जीव भगवान है .

इस भाव में रहते
हुए जब आप मंदिर से बाहर लौटोगे तो सड़क पर यदि आपको जिसे आज तक आप दुश्मन मानते थे
,अब दिखेगा तो मन में वे
पहले वाले भाव नहीं आयेंगे. क्यों की अब आप अवचेतन मन से मंदिर नहीं जा रहे है .
इसलिए अवचेतन मन में पड़े दुश्मनी के भावों को आप ने पोषण देना अब बंद कर दिया है
ओर अब आप नये सिरे से अपना अवचेतन मन निर्मित कर रहे है .

अर्थात जैसे ही
आप क्रियायोग ध्यान का अभ्यास करना शुरू करते है तो सृजन की क्रिया शुरू हो जाती
है ओर आप एक सृजन कर्ता बन जाते है . अर्थात इस अभ्यास से आप परमात्मा से एकता की
अनुभूति करने में सफल हो जाते है .

फिर
मुझे ऐसा क्यों लगता है की मै खुद कर रहा हूँ
,
परमात्मा मेरे माध्यम से कुछ नहीं कर
रहे है
?

अवचेतन मन की इस
प्रकार की प्रोग्रामिंग के कारण .

पर यदि मै का भाव
ही नहीं रहेगा तो फिर मै इस संसार में ख़ुशी से कैसे रह पाऊंगा
?

बहुत अच्छा
प्रश्न . मै के भाव को व्यवस्थित करना ही हमारा लक्ष्य है . यदि हम पूर्ण रूप से
मै को मिटा देंगे तो फिर हम पैरो से चल नहीं पायेंगे. क्यों की फिर हम सभी प्रकार
के बलों से मुक्त हो जाते है इसलिए फिर हमे हमारे वजन की अनुभूति भी नहीं होंगी .

इसलिए हमे
क्रियायोग ध्यान के अभ्यास से यह ज्ञान मिलता है की मुझे मेरा वजन कितना रखना है
,
मुझे क्या काम करना है , मुझे लोगों से किस प्रकार बात करनी है , यदि कोई बिमारी आ जाए तो फिर कैसे इसे ठीक करना
है . इस प्रकार से मै का भाव केवल सृजन के लिए प्रयुक्त होता है .

इसीलिए तो हमारे
शरीर में जो परिवर्तन होते है वे सभी हमारे शरीर को मानव से महामानव की रचना में
रूपांतरित करने के लिए होते है . पर जब हम इन परिवर्तनों से राग द्वेष करने लगते
है तो यही परिवर्तन हमारे नाश का कारण बनते है . कैसे
?

जैसे
हमारा वजन बहुत ज्यादा बढ़ गया है ओर अब  हम
इससे  घृणा कर रहे है तो फिर हम हमारा वजन
कभी भी संयमित नहीं कर पायेंगे . क्यों
?

क्यों की हमने ही
अप्राकृतिक कर्मो के कारण अपना वजन बढा लिया ओर अब हम खुद की गलतियों को स्वीकार
नहीं कर रहे है . ओर जब हमे लोग मोटा कहते है तो हमे उन पर गुस्सा आता है . अर्थात
हम परमात्मा को भूल जाते है ओर इन लोगों को आम इंसान समझ बैठते है . ये सभी लोग
परमात्मा के ही रूप है . क्यों की कण कण में केवल परमात्मा का ही अस्तित्व है . यह
सभी लोग हम खुद ही निर्मित कर रहे है हमारे अवचेतन मन के माध्यम से .

इसलिए जैसे जैसे
आप हर जीव को परमात्मा के रूप में देखने का अभ्यास करेंगे तो फिर आप अपने शरीर को
भी शीशे में देखकर परमात्मा का रूप स्वीकार करने में सफल होने लगेंगे .

अवचेतन मन को
संयमित करने का यही एक सरल उपाय है .

आप कभी सबकुछ
परमात्मा के ऊपर छोड़ के देखना  आप के सभी
काम बहुत ही सही तरीके से होने लगेंगे . ओर कभी सभी काम इस भाव के साथ करके देखना
की मै खुद ये काम कर रहा हूँ
, मेरे सभी काम सही
ही होंगे
, मेरा कोई भी काम कोई भी
व्यक्ति गलत नहीं ठहरा सकता है .

तो आप के साथ बात
बात पर झगडे होना शुरू हो जायेंगे . ऐसा क्यों
?

क्यों की ऐसा
करके आप प्रकृति के रचना कार्यो में बाधा पंहुचा रहे है ओर प्रकृति इसी बात की आप
को लड़ाई झगड़ो ओर बीमारियों के रूप में सजा दे रही है .

केवल क्रियायोग
ध्यान के गहरे अभ्यास से आप तुरंत यह महसूस कर सकते है की परमात्मा आप के रूप में
सभी कार्य सम्पादित करके नयी रचनाओं का निरंतर सृजन कर रहे है . धन्यवाद जी .
मंगल हो जी .

 

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