क्या सब कुछ पहले से तय है ?

आज मेरे प्यारे मित्रों मै आप को ‘क्या सब कुछ पहले से तय है‘ प्रश्न का वास्तविक उत्तर समझा रहा हूँ .
सबसे पहले आप को यह विश्वास करना है की केवल परमात्मा का अस्तित्व है और कण कण में केवल
परमात्मा ही अनेक रूपों में प्रकट हो रहे है .
अर्थात परमात्मा एक है और इससे प्रकट हुआ दूसरा है .
यह दूसरा ही माया है . इंसान और अन्य पशु – पक्षी और कीट पतंगों के लिए यह जीव भाव है .

अर्थात हमारा जीवन दो भावों में विकसित हो रहा है .

  • आत्म भाव
  • जीव भाव

जब हम जीवन को आत्म भाव की दृष्टि से देखते है तो पता चलता है की सब कुछ पहले से तय है .
और जब हम जीवन को जीव भाव की दृष्टि से देखते है तो हम खुद अपने जीवन का निर्माण कर रहे है.

अब प्रश्न यह है की हमे जीव भाव में रहना चाहिए या आत्म भाव में ?
यदि हम हमारे अस्तित्व की रक्षा करना चाहते है तो हमे पहले आत्म भाव में रहते हुए यह समझने का अभ्यास करना चाहिए की हमारा आत्म भाव ही जीव भाव के रूप में प्रकट हो रहा है .
अर्थात जब हम सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर जीवन की सभी क्रियाये करते है तो धीरे धीरे
हमे यह अनुभव होने लगता है की परमात्मा खुद ही आत्म भाव में प्रकट होते हुए जीव भाव को प्रकट करते है .

अर्थात ऊर्जा साकार रूप लेती है . मतलब यह है की आप खुद परमात्मा की शक्ति से अपने मन का निर्माण कर रहे है और फिर यही मन घनीभूत होकर शरीर और संसार के रूप में प्रकट हो रहा है .

इसे मै आप को एक उदाहरण से समझाता हूँ :

जैसे आप खुद को जीव भाव में महसूस करते है तो अब आप को यह समझना होता है की जब आप घर में या बाहर किसी भी व्यक्ति से मिलते है तो आप उससे किस प्रकार से जुड़ते है . क्यों की आप इस संसार में जीव भाव में रहकर ही इस रंगमंच पर अपना किरदार सही से निभा पाते है .
जीव भाव में रहते हुए हम हमारे परिवार वालो और समाज वालो और देश दुनिया की सेवा कर पाते है .
और यदि हम पूर्ण रूप से आत्म भाव में रहेंगे तो फिर हमारा यह संसार समाप्त होने लगेगा .

आत्म भाव में रहने पर संसार समाप्त क्यों होने लगता है ?

क्यों की पूरी तरह आत्म भाव में रहने से हमारा मन वापस परमात्मा में मिलने लगता है .

ऐसा क्यों होता है ?

क्यों की हमारा मन तभी अस्तित्व में रह सकता है जब यह इन्द्रियों के माध्यम से विषयों का सेवन करता है .
अर्थात मन से ही इस शरीर का निर्माण होता है और इस शरीर से ही हमारी इन इन्द्रियों का निर्माण होता है और इन्द्रियों के अस्तित्व की रक्षा के लिए विषयों का निर्माण होता है .

जैसे आँखों का विषय है देखना . अर्थात आँखों से हम साकार रचनाओं को देखकर सुख दुःख की अनुभूति करते है .
अब यदि हम बहुत लम्बे समय तक हमारी आँखों से नहीं देखेंगे तो फिर धीरे धीरे हमारी आँखे अदृश्य होने लगेगी .
इसी प्रकार से यदि हम हमारे पैरो से बहुत लम्बे समय तक नहीं चलेंगे तो फिर धीरे धीरे हम चलने फिरने में असमर्थ होने लगेंगे .

इसीलिए हमारे घर परिवार में ज्ञानी जन कहते है की व्यक्ति को आखिरी श्वास तक अपने शरीर से कुछ न कुछ काम करते रहना चाहिए . वरना एक बार खाट पकड़ने के बाद दुबारा से उठना बहुत मुश्किल हो जाता है .
और इसीलिए कहते है की मन के जीते जीत है और मन के हारे हार है . कई व्यक्ति बुढ़ापे में भी अपने शरीर से वापस काम करवाके फिर से जवान होने लगते है . यह उनके मनोबल के कारण संभव हो जाता है .

जब हम किसी दृश्य को देखते है तो देखने की क्रिया में जीव भाव रहता है और फिर जैसे ही इस दृश्य से हमें सुख दुःख की अनुभूति होने लगती है तो यदि हम निरंतर आत्म भाव में जीने का अभ्यास कर रहे है तो फिर सुख दुःख में भी स्थिर होने लगते है . और इसीलिए हमारी आँखे स्वस्थ रहती है .

यदि हम किसी भी दृश्य को देखकर पूरी तरह जीव भाव में ही रह जायेंगे तो हम सुख दुःख की अनुभूति को बढ़ाने लगते है . अर्थात जैसे हमारी आँखों को कोई दृश्य बहुत खराब लग रहा है तो पूरी तरह जीव भाव में रहने के कारण हमारा मन कहेगा की मै इस दृश्य को नहीं देखना चाहता हूँ .

और मन जिस चेतना शक्ति का इस्तेमाल करके आँखों के माध्यम से इस दृश्य को देख रहा था अब धीरे धीरे अपनी यह चेतना शक्ति रुपी ऊर्जा खर्च करना बंद कर देता है और हमारी आँखों को मन के माध्यम से जो यह ऊर्जा मिल रही थी वह अब धीरे धीरे मिलना बंद हो जाती है .
और आँखों में इस ऊर्जा की कमी के कारण हमारी आँखे धीरे धीरे देखने की क्रिया करना बंद कर देती है .
इस ऊर्जा को प्राण शक्ति भी कहते है .
मतलब मन की असंतुष्टि के कारण आँखों में प्राण शक्ति की कमी होने पर आँखे धीरे धीरे खराब होने लगती है . क्यों की हमने ऐसा करके इस अमुक दृश्य से घृणा करी है .

यहां खराब का मतलब है की जिस प्रकार से एक छोटे बढ़ते हुए हरे पेड़ को हम यदि पानी पिलाना बंद कर देंगे तो वह पेड़ धीरे धीरे सूखने लगता है . ठीक इसी प्रकार से यदि हम इस शरीर को हमेशा स्वस्थ रखना चाहते है तो हमे सुख दुःख में स्थिर रहना पड़ेगा . और स्थिर रहने की यह आदत हमारे मन को प्रशिक्षित करके विकसित की जाती है .

और यदि हम किसी भी दृश्य को देखकर सुख दुःख में भी स्थिर रहते है तो फिर हमारी आँखे स्वस्थ बनी रहती है .
ऐसा क्यों होता है ?
क्यों की अब हम आत्म भाव में जी रहे होते है . इसलिए आँखों में प्राण शक्ति का प्रवाह अब प्राकृतिक रूप से होने लगता है . इसी को ज्ञानी जन कहते है की शरीर अपनी सुरक्षा खुद करता है .
अर्थात जब हम प्राकृतिक रूप से जीवन जीते है तो हमारा शरीर हमेशा स्वस्थ रहता है .

प्राकृतिक जीवन का अर्थ होता है की जैसे हमारे पेट दर्द होता है तो अब हम अहंकार नहीं करते है बल्कि
जब तक दर्द सहन होता है तब तक दर्द को सहन करते है और यदि दर्द असहनीय बन जाता है तो फिर हम चिकित्सक की मदद भी लेते है .
पर यह सब करते हुए हम भीतर से बिलकुल भी परेशान नहीं होते है . यदि हम थोड़ा बहुत भी परेशान होते है तो इसका मतलब हम फिर से राग द्वेष में फस रहे है . इसलिए राग द्वेष में फसने से बचने का एक मात्र उपाय है स्वरुप दर्शन का नियमित रूप से अभ्यास करना .

जिस प्रकार से मेने आँखों का विषय लेकर समझाया है ठीक इसी प्रकार से यह बाते अन्य विषयों के लिए भी समान रूप से लागू होती है .

इसलिए अब आप खुद ही समझ गये होंगे की ‘क्या सब कुछ पहले से तय है’ का उत्तर आप ‘हां’ मानते है तो आप पूरी तरह आत्म भाव में जी रहे है .
और यदि आप ‘क्या सब कुछ पहले से तय है’ का उत्तर ‘नहीं ‘ मानते है तो आप पूरी तरह जीव भाव में जी रहे है .
और यदि आप ‘क्या सब कुछ पहले से तय है’ का उत्तर ‘आत्म भाव में रहते हुए जीव भाव को समझ जाते है’ तो फिर आप को इस संसार में रहने में परेशानी नहीं होती है .

अब यह आप को तय करना है की आप अपने जीवन को किस दिशा में ले जाना चाहते है . ज्यादातर मनुष्य आत्म भाव और जीव भाव दोनों के बीच में हिचकोले खाते रहते है इसलिए उनको ना तो माया मिलती है और नाही परमात्मा .
इन दोनों भाव को अनुभव के आधार पर जब तक नहीं समझ पाते तब तक ये बाते केवल कोरा ज्ञान साबित होती है .
इसलिए इन भावों को समझने का हर व्यक्ति का अपना एक अलग तरीका होता है .

जैसे आप अपने शरीर को एक मोटर गाड़ी समझ सकते है और आप इसके चालक है . अब आप इस गाड़ी को लेकर बाजार में घुस जाते है . अब आपको दाए बाए और ऊपर निचे देखते हुए इस गाड़ी को भरे बाजार में चलाना है.
इसलिए आप को आत्म भाव में रहकर तो इसे प्राण शक्ति लगातार देनी है और जीव भाव में रहकर इस शरीर रुपी गाड़ी को विकसित करना है .

जैसे आप अपने शरीर को लेकर बाजार में एक कपड़े की दूकान पर जाते है तो आत्म भाव में रहकर अपने शरीर को प्राण शक्ति से सींचना होता है और फिर जैसे ही शरीर प्राणवंत हो जाता है तो आँखों से नयी नयी पोशाके देखकर प्रसन्न हो जाना है . खरीदना नहीं खरीदना एक अलग विषय है .

जब आप आत्म भाव में रहेंगे तो आप की आँखों को प्राण शक्ति मिलेगी और जब आप इस शक्ति का सदुपयोग पोशाकों को देखकर प्रसन्न होने में नहीं करेंगे तो फिर आँखों को मिली यही शक्ति उस समय आप जिस भाव में होंगे उसी में यह प्राण शक्ति रूपांतरित हो जाएगी .

यदि आप पोशाकों को देखकर दुखी होते है तो इसका मतलब है की अब आप अपनी प्राण शक्ति को दुःख के रूप में साकार कर रहे है . और ऐसा निरंतर हर जगह करने पर धीरे धीरे आप की आँखे खराब होने लगेगी .
इसलिए तो परमात्मा ने कहा है की मेरे बच्चे तू यह समझ की तेरे इस शरीर के माध्यम से मै ही सब कुछ कर रहा हूँ . अर्थात जीव भाव आत्म भाव की ही छाया है . और छाया हमेशा वस्तु की होती है .

मतलब वस्तु से छाया प्रकट होती है . छाया से वस्तु कभी नहीं प्रकट होती है .
इसलिए परमात्मा की शक्ति से यह शरीर प्रकट होता है . शरीर से परमात्मा प्रकट नहीं होते है .
इसीलिए परमात्मा स्थिर है और शरीर अस्थिर है . और शरीर के इसी अस्थिर होने के कारण हमे
तरह तरह के डर, चिंता , पीड़ाये सताती है .

इसलिए अब समय आ गया है मेरे मित्रों खुद के स्वरुप का दर्शन विज्ञानं के आधार पर समझते हुए अभ्यास करने का .
यदि आप को इस लेख को पढ़कर और फिर अभ्यास करके फायदा होता है तो हमे कमेंट करके अवश्य बताये . ताकि किसी जरूरतमंद की हम सेवा ठीक से कर पाए .

धन्यवाद जी . मंगल हो जी .

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