परमात्मा का वास्तविक अर्थ यह होता है की
परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है .
परमात्मा को निम्न नामों से भी जाना जाता है :
निराकार , सर्वव्यापी , भगवान, ईश्वर , अल्लाह , गॉड, परमेश्वर , अनंत , परम चेतना , शून्य इत्यादि .
आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है पर परमात्मा के सभी गुण
रखता है . अर्थात आत्मा परमात्मा से हर प्रकार से जुडी हुयी है . आत्मा और
परमात्मा के बीच दूरी शून्य है .
जैसे परमात्मा समुद्र है तो आत्मा लहर है . पर यहां ध्यान
देने योग्य बात यह है की आत्मा की अलग से व्याख्या तभी सभव है जब यह लहर का रूप
लेती है अर्थात अहंकार(इच्छा) के कारण जीव भाव में बंध जाती है .
इसे आप इस तरीके से समझ सकते है जैसे जब पंखा नहीं चल रहा
होता है तो कमरे में पंखे की हवा का कोई अस्तित्व नहीं रहता है . परन्तु जब विधुत
ऊर्जा का इस्तेमाल करके पंखा चलने लगता है तो हवा पैदा होने लगती है . वास्तविक
रूप में कमरे में हवा पैदा नहीं होती है बल्कि कमरे में पंखे की हलचल से एक ऐसा
वातावरण तैयार हो जाता है जिससे हमे हवा का अनुभव होने लगता है . अर्थात पंखे के
चलने से हवा रुपी माया प्रकट होती है .
ठीक इसी प्रकार से जब परमात्मा की इच्छा होती
है तो इस इच्छा रुपी हलचल से एक छाया (कारण शरीर) प्रकट होने लगती है जिसमे आत्मा
रुपी शक्ति का इस्तेमाल होता है . अर्थात एक ऐसी ऊर्जा तरंग उठती है जो प्रभु की
इच्छा के कारण धीरे धीरे सघन होती जाती है और धीरे धीरे यही आत्मा कारण शरीर से
सूक्ष्म शरीर का रूप धारण कर लेती है . और यही सूक्ष्म शरीर नवीन इच्छा के कारण
भौतिक शरीर का रूप ले लेता है . इसी को कर्म बंधन कहा जाता है . अर्थात परमात्मा
ने कर्म किया (यहां इच्छा) और आत्मा को परिणाम के रूप में इस शरीर रुपी छाया के
रूप में बाँध दिया.
अब यह जो श्रंखला चल पड़ती है प्रभु इसे तब तक चलाते है जब
तक उनकी मर्जी होती है . और जब उनकी यह इच्छा होती है की इस अमुक श्रंखला को वापस
खुद में मिलाना है तो वे खुद इच्छा का ही अंत (जिसे बोलचाल की भाषा में अंतिम
संस्कार , मृत्यु , स्वर्गवासी , देवलोकगमन , निधन ऐसे अनेक
नामों से जाना जाता है) कर देते है . इस प्रकार से एक चक्र पूरा होता है .
अब यहां ध्यान देने योग्य बात यह है की फिर जीव
क्या होता है ?
जब प्रभु इच्छा करते है की यह छाया कायम रहे तो प्रभु इस
छाया को आगे विकसित करने के लिए इसमें इन्द्रियाँ प्रकट करते है . अर्थात जैसे हम
किसी मानव शरीर का चित्र बनाते है तो पहले एक ऊपर ऊपर का नक्शा बनाते है . फिर
इसमें हाथ पैर बनाते है ,
फिर इसमें धीरे
धीरे सभी अंग बनाते है . अर्थात अब यह मानव का चित्र सघन होता जा रहा है . ठीक इसी
प्रकार कारण शरीर सबसे सूक्ष्मतम छाया है , फिर इस छाया को आगे विकसित करके इसे सूक्ष्म शरीर के रूप
में बदल देते है और फिर इसे भौतिक शरीर का आकार देते है . अब आप ही अनुमान लगाए की
आप यदि कोई नया घर बनाते है तो उसे हमेशा के लिए युही खाली रखने के लिए तो आप ने
बनाया नहीं है . या तो आप खुद परिवार के साथ इस घर में रहेंगे या किसी अन्य
व्यक्ति को किराये पर देंगे या आप कोई न कोई काम इस घर की सहायता से करेंगे . तभी
तो इस घर का आप ध्यान रखेंगे . इसमें नियमित रूप से साफ़ सफाई , समय समय पर इसकी
मरम्मत इत्यादि करवाते रहेंगे ताकि इस घर
का अस्तित्व सुरक्षित रहे .
ठीक इसी प्रकार उपरोक्त आत्मा की छाया का अस्तित्व बना रहे
प्रभु इसके लिए मन प्रकट करते है . साथ ही एक बुद्धि प्रकट करते है जो मन को आगे
चलने के लिए सही दिशा निर्देश देती रहे . अब प्रभु इस छाया के रूप में आगे कदम
बढ़ाना चाहते है इसलिए इस छाया में हाथ पैर रुपी नयी छाया जोड़ देते है . अर्थात
प्रभु इस छाया को एक शरीर का रूप दे देते है . अब आप ही अनुमान लगाए की अब इस शरीर
को क्या चाहिए .
इसे भोजन चाहिए . भोजन क्या होता है ?
यहां प्रभु समझा रहे है की इस छाया का भोजन देखना , सुनना , सोचना , सूंघना , स्वाद लेना , चलना , विचार करना ऐसे
अनेक प्रकार के भोग प्रकट करते है ताकि इस शरीर रुपी छाया का अस्तित्व बना रहे .
अर्थात कुल मिलाकर हमारे प्रभु इस छाया के रूप में स्वप्न
देख रहे है . इस छाया के विकास के लिए इसी के अंग इन्द्रियाँ है और यही भोग(मकान , नदियाँ, पेड़ , खाना , पकवान ऐसे अनेक)
इन इन्द्रियों के विषय है . अर्थात विषय नहीं रहेंगे तो इन्द्रियाँ सूख जायेगी और
इन्द्रियाँ नहीं रहेगी तो शरीर सूख जायेगा और शरीर नहीं रहेगा तो आत्मा वापस
परमात्मा में पूर्ण रूप से समां जायेगी .
आज हमने जीवन चक्र को अनेक तरीको में से एक तरीके से समझने
का प्रयास किया है .
धन्यवाद जी . मंगल हो जी .