केवल परमात्मा का अस्तित्व है. परमात्मा सर्वव्यापी है परमात्मा कण कण में विराजमान है. परमात्मा का हर गुण अनंत है जैसे परमात्मा का एक गुण यह भी है की वे एक से अनेक रूपों में प्रकट होते है. निराकार से साकार रूप में प्रकट होना है : सृष्टि की उत्पति अर्थात निराकार से साकार रूप में प्रकट होना ,असंख्य जीव अर्थात एक से अनेक होने का गुण. मानव का लक्ष्य केवल परमात्मा को जानना है , खुद के स्वरूप को जानना है , परमात्मा और हमारे बीच दूरी शून्य है इसका अनुभव करना है , हर पल खुश कैसे रहे इसका अभ्यास करना है
Thursday, February 29, 2024
पूर्ण विश्वास के साथ यह करोगें तो सिर दर्द हमेशा के लिए गायब
Tuesday, February 27, 2024
भक्त और भगवान के बीच बातचीत - भाग 2
भक्त : हे परमेश्वर विचार का मन और बुध्दि से क्या सम्बन्ध है ?
भगवान : वत्स मेने मन में कई तल बनाये है . जैसे ही मन कोई एक विचार प्रकट करता है वह मन के एक तल पर जाकर जमा हो जाता है . और मन जब इस विचार की लगातार पुनरावृति करता है तो ये सभी विचार मन के इस तल पर जमा होते होते दृश्य रूप लेने लगते है . जैसे मेरे मन में एक विचार आया की मुझे अहिंसा का जीवन जीना है . और अब मेरा मन बार बार इसकी पुनरावृति कर रहा है तो मेरे मन के माध्यम से जिस शरीर की रचना हुयी है उसके जो अंग है उनमे परिवर्तन होना शुरू हो जायेगा . और यह परिवर्तन शिव की शक्ति के माध्यम से होता है . जैसे मन में एक विचार आया तो केवल वह विचार ही मन एक तल पर जमा नहीं होता है बल्कि उस विचार को विष्णु शक्ति के माध्यम से सुरक्षित रखने के लिए मुझे विचार के पोषण के लिए विषय रुपी गुण प्रकट करना पड़ता है . इसे वत्स मै आप को इस उदाहरण से समझाता हूँ . जैसे मन में अहिंसा का विचार आया और मन के एक तल पर सुरक्षित हो गया . पर यह ज्यादा देर तक अस्तित्व में नहीं रहेगा यदि इसे पोषण नहीं मिला तो . इसलिए मेने मन से कहा की अब आप दूसरा विचार प्रकट करो की मै जीभ के माध्यम से किसी भी जीव को मारकर उसको खाने के स्वाद का अनुभव नहीं करूँगा . अर्थात मेरी किसी भी जीव को मारकर खाने में कोई रूचि नहीं है . ठीक इसी प्रकार ऐसी वाणी नहीं बोलूंगा जिससे हिंसा हो . इस प्रकार मन में सभी इन्द्रियों के लिए अहिंसा के विचार उनके विषयों के अनुरूप प्रकट होते जायेंगे .
भक्त : हे परमात्मा फिर बुध्दि क्या करेगी ?
भगवान : बताता
हूँ वत्स . इन विचारों की निगरानी करने के लिए मै बुध्दि को आदेश दूंगा की जो क्रम
मेने मन के माध्यम से प्रकट होने वाले विचारों के लिए तय किया है मन ठीक से उनका
पालन कर रहा है या नहीं . इसलिए बुध्दि के अंदर भी मैंने कई तल बनाये है . बुध्दि
को मैंने मन का नियंत्रक बनाया है . और बुध्दि का नियंत्रक मै खुद हूँ . पर मन का
मुख्य नियंत्रक मै खुद हूँ . अर्थात मन को मै कोई आदेश देदू और और बुध्दि के हिसाब
से वह गलत है फिर भी मन से वह काम में
करवा लेता हूँ . क्यों की मेने बुध्दि को केवल माया का अस्तित्व बना रहे इसके
दायरे में होने वाले कर्मो का नियंत्रण ही
दिया है . कोई मनुष्य मुझे बुध्दि से जाननें का प्रयत्न करे तो यह बुध्दि के बस की
बात नहीं है . क्यों की वास्तविकता में बुध्दि का कोई अस्तित्व नहीं है . मुझे मन
से , बुध्दि से नहीं जाना जा
सकता है . क्यों की यह दोनों ही माया है .
भक्त : हे मायाचारी फिर तो आप मन से कुछ भी अनैतिक कार्य करवा सकते हो और आप ने पहले कहा की बुध्दि सोच समझकर निर्णय लेती है की मनुष्य के हित में क्या है .
भगवान: नहीं वत्स , ऐसा नहीं है . मेरी माया भी मेरे सत्य नियम के तहत ही लीला करती है . अर्थात अकारण इस सृष्टि में कुछ भी नहीं होता है . अर्थात यदि किसी मनुष्य ने किसी भी जीव को कष्ट पहुंचाया है तो मेरी माया उसको सजा अवश्य देती है मेरी माया में अन्याय नहीं होता है बल्कि मनुष्य जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है .
भक्त : हे परमात्मा मै समझा नहीं .
भगवान : वत्स मै
आप को अब और गहराई में ले चलता हु . सबसे पहले मै मेरे निराकार स्वरुप से एक ऊर्जा
कण लेकर उसका जीवन चक्र शुरू करता हु . इस ऊर्जा कण को आप विचार की संज्ञा दे सकते
हो . अर्थात परमाणु से सूक्ष्म उसमे उपस्थित इलेक्ट्रान प्रोटोन उनसे भी सूक्ष्म
होता है एक विचार . वत्स परमाणु का भी कोई अस्तित्व नहीं है और इलेक्ट्रान प्रोटोन
का भी कोई अलग से अस्तित्व नहीं है . ये सब अविध्या , अज्ञान है . आज तक परमाणु को किसी ने नहीं देखा . केवल मेरा
ही अस्तित्व है बाकी सब माया है , अज्ञान है ,
झूट है , छल है , मिथ्या है ,
नश्वर है , भंगुर है , प्रतिक्षण बदल
रहे है .केवल मै अकेला अपरिवर्तनशील हु .
Saturday, February 24, 2024
परमात्मा की महिमा क्या है ?
परमात्मा की
महिमा क्या है ?
परमात्मा की महिमा का अर्थ है की कैसे हम अपने स्वरूप को जाने , परमात्मा को जाने , हमारे और परमात्मा के बीच दूरी शून्य है इसका अनुभव करे , हर पल खुश रहे इसका अनुभव करे , जीवन की सभी समस्याएं हमेशा के लिए समाप्त हो जाये इसका अनुभव करे , इसी शरीर में रहते हुए मोक्ष का अनुभव करे , खुद को पहचान ले की मै कोन हु , इस संसार को पूरी तरह जान जाये , कैसे हमारे शरीर का निर्माण हुआ है इसका ज्ञान हो जाये , कैसे हम इसमें आवश्यक परिवर्तन कर ले इसका ज्ञान हो जाये , कैसे हमारे शरीर की सुरक्षा करे इसका ज्ञान हो जाये . जब तक हम चाहे तब तक इस पृथ्वी पर इसी शरीर में रहे इसका ज्ञान हो जाये , कैसे सभी पापों से मुक्त हो जाये , हमारे लक्ष्य को पहचानले , बीमारियों से हमेशा के लिए मुक्त हो जाये .
आखिर क्या है पाप और पुण्य का गहरा राज ?
आखिर क्या है पाप
और पुण्य का गहरा राज ?
इस राज का पता तभी चलता है जब हम परमात्मा की महिमा का निरन्तर अभ्यास यहां समझाई जा रही विध्या के साथ करते है . क्यों की इस राज को समझ के साथ पड़ने से या इसके वीडियो देखने से अभ्यास की गति तेज होने लगती है और अभ्यास के दौरान आने वाली शंकाओं का समाधान अपने आप होने लगता है . इसलिए हम बार बार कहते है की परमात्मा की महिमा चैनल और ब्लोग्स को देखना ,पड़ना और सुनना बहुत जरुरी है यदि हम साधना में सच में सफलता चाहते है तो .
यहां हम पाप और पुण्य की बात सभी जीवों के विषय में कहेंगे . पाप और पुण्य केवल परमात्मा की माया मात्र है परन्तु यह माया परमात्मा के सत्य नियम के साथ चलती है . यदि कोई भी जीव इस संसार को बहुत अच्छे से जीना चाहता है , भोगना चाहता है , इसमें रहना चाहता है , इसके साथ चलना चाहता है , उसे भीतर से पता है की वह क्या कर रहा है , या किसी भी घटना के बाद में पता चलता है , या उसमे थोड़ी बहुत भी परमात्मा के प्रति सजगता है , या वह अपने शरीर के अस्तित्व की रक्षा चाहता है और उसके लिए उसमे थोड़ा बहुत भी विवेक है तो ऐसा जीव जब प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करता है तो उसको पाप 100 % लगता ही लगता है . और प्रकृति की रक्षा में अपना योगदान देता है तो उसे पुण्य लगता ही लगता है . अब चाहे वह स्वीकार करे या नहीं प्रकृति यह उपहार उसको किसी भी रूप में दे देती है .
अब प्रश्न यह उठता है की पाप पुण्य केवल मनुष्य को ही लगता है पशु पक्षियों को नहीं क्यों की वे भोग योनि में होते है . यह आंशिक सत्य है . पूर्ण सत्य यह है की जीव की शारीरिक सरंचना एक सीमा तक ही भेद कर पाती है इसके बाद यह जरुरी नहीं है की कोई जीव मनुष्य की तरह दीखता हो और पशुओं की तरह व्यवहार नहीं करता हो और कोई जीव पशु पक्षी की तरह दीखता हो और समझ मनुष्य की तरह नहीं रखता हो. अर्थात इन्द्रियों के माध्यम से किया गया अनुभव पूर्ण सत्य नहीं है . इसको हम निम्न उदाहरण से आसानी से समझ सकते है :
एक व्यक्ति है जो रास्ते में चल रहा है और अचानक उसके पैर के निचे एक कीड़ा दबकर मर जाता है तो क्या इस व्यक्ति को पाप लगेगा ?
इसका उत्तर कई बातो पर निर्भर करता है . जैसे:
यदि यह व्यक्ति शरीर भाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो चूका है और अपने आप को परमात्मा को पूर्ण रूप से समर्पित कर चूका है अर्थात प्रकृति से ऊपर उठ चूका है तब इसको ना पाप लगेगा और ना ही पुण्य लगेगा .
यदि यह व्यक्ति शरीर भाव में जितना प्रतिशत जी रहा है तो उसी अनुपात में इसको पाप लगेगा .
यदि यह व्यक्ति जानबूझकर कीड़ा मारता है और कीड़ा अभी जीना चाहता है अर्थात अभी परमात्मा की इच्छा नहीं है या यु कहे की कीड़े का जीवन चक्र(life cycle) पूरा नहीं हुआ है तो 100 % पाप लगेगा .
यदि यह व्यक्ति अनजाने में कीड़ा मारता है और कीड़ा अभी जीना चाहता है तो कीड़े से निकली प्रतिक्रिया इसको प्रभावित अवश्य करती है और वह किसी भी रूप में और कभी भी प्रभावित कर सकती है .
पर यदि कीड़े की मोत के लिए यह व्यक्ति निम्मित बनता है अर्थात परमात्मा स्वयं यह चाहते है तो इसको पाप बिल्कुल नहीं लगेगा . अर्थात पाप और पुण्य उन सभी जीवो को लगते है जो इस माया को सच मानकर जीते है . पर फिर भी यदि हम मोटे तोर पर बात करे तो पशु पक्षी भोग योनि में होते है उनको पाप पुण्य नहीं लगते है और केवल मनुष्य भोग योनि के साथ साथ कर्म योनि में भी होते है इसलिए मनुष्य को पाप पुण्य अवश्य लगते है . मनुष्य अपने सर्वश्रेष्ठ कर्मो से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है और जघन्य पाप कर्मो से अपना सर्वनाश कर सकता है अर्थात बेहद नीच योनियों में वापस जा सकता है . पर ज्यादातर मनुष्य एक जन्म से दूसरे जन्म में मनुष्य ही बनता है पर वह बात अलग है की वह किस कोटि का मनुष्य बनता है यह उसके पुरे जीवन के कर्मो से निर्धारित होता है . मनुष्य सोचे की पुरे जीवन जघन्य पाप करे और अंतिम समय में परमात्मा को पूर्ण रूप से भाव में ले आये तो ऐसी कोई दुर्लभ घटना ही होती है . क्यों की यह सारा खेल हमारे मन से चलता है इसलिए मन को निर्मल करने का काम निरन्तर करना होता है यह तपस्या से ही संभव होता है . बाकी सब धोखा ही धोखा है . इसलिए निरन्तर हमे परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते रहना चाहिए .
Friday, February 23, 2024
घुटनों में कैसा भी दर्द हो 100 % ठीक हो जायेगा - भाग 2
Thursday, February 22, 2024
सीने में दर्द , हार्ट अटैक का डर तो क्या करे ?
Tuesday, February 20, 2024
यह भजन हिरण को उसकी कस्तूरी से मिला रहा है
Monday, February 19, 2024
इस भजन से खुद के मन की असली बात को समझे
परमात्मा की महिमा का सिद्धांत क्या है ?
परमात्मा की महिमा का सिद्धांत क्या है ?
सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर जीवन के सभी क्रिया कलाप करना ही परमात्मा की महिमा का अभ्यास है
परमात्मा के गुणों से जुड़ने से हमारे सभी असाध्य रोगों का इलाज , बालों के रोगों का इलाज , सिर के रोगों का इलाज , त्वचा के रोगों का
इलाज , दाँतो के रोगों का इलाज , पेट के रोगों का इलाज , हृदय के रोगों का
इलाज , घुटनों के दर्द का इलाज , आँखों के रोगों का इलाज , पेट में गैस , कब्ज , एसिडिटी , जी मिचलाना , उल्टी , दस्त , अफारा , पैशाब के रोगों का
इलाज , सभी गुप्त रोगों का इलाज जड़ से हो जाता है. केवल परमात्मा
का अस्तित्व है. परमात्मा सर्वव्यापी है परमात्मा कण कण में विराजमान है. परमात्मा
का हर गुण अनंत है जैसे निराकार से साकार रूप में प्रकट होना भी परमात्मा
का ही एक गुण है. सृष्टि की उत्पति निराकार से साकार रूप में प्रकट होना , फिर एक सृष्टि में
अनेक देश , अनेक नदियाँ , अनेक पहाड़, असंख्य जीव अर्थात एक से अनेक होने का गुण. मानव
का लक्ष्य केवल परमात्मा को जानना है , खुद के स्वरूप को जानना है , परमात्मा और हमारे
बीच दूरी शून्य है इसका अनुभव करना है , हर पल खुश कैसे रहे इसका अभ्यास करना है , अपने अस्तित्व की
रक्षा करना है , माया पर विजय प्राप्त करना है मन को समझना है |
जब हम पहली बार इसका अभ्यास करते है तो हमारा मन इसका विरोध करता है और कहता है की कोई परमात्मा नहीं होता है जो है वो में ही सबकुछ हु . इसे इस उदाहरण से समझते है : जब आप पैरो में एकाग्र होकर चलने का अभ्यास करते हो तो आप को पहली पहली बार कुछ अटपटा सा लगता है और आप ठीक से चल नहीं पाते हो . आप के मन में तरह तरह के विचार आने लगते है जैसे कही में गिर नहीं जाऊ , कही में धीरे तो नहीं चल रहा हु , क्या पता में कैसे चल रहा हु कोई मुझे पीछे से देख रहा होगा तो वो क्या सोचेगा , कही मेरी चाल को देखकर लोग हसने नहीं लग जाये ऐसे तमाम विचार आते है और आप मन के जाल को समझ नहीं पाते हो और अभ्यास बीच में ही छोड़ देते हो.
आप यह भी सोचते हो की ऐसा करने से परमात्मा की महिमा कैसे होगी . आप सोचते हो यह कोनसी ऐसी परमात्मा की महिमा आ गयी जिसमे ना तो कोई मंत्र जाप है ना ही कोई भजन है. पर सच यह है की आप के सबसे निकट परमात्मा का साकार रूप आप की इस रचना के रूप में है जिसे आप शरीर कहते है और स्वयं रचनाकार अर्थात परमात्मा इस रचना के साथ है पर हमें इसका अनुभव नहीं होता है क्यों की कई जन्मो से हम परमात्मा को बहार खोज रहे है . परमात्मा बाहर भी है और भीतर भी है वह सब जगह है केवल परमात्मा का अस्तित्व है परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है
अब यह समझते है की :
पैरो में एकाग्र होने से हमें ख़ुशी कैसे मिलेगी?
पैरो में कोई भी बीमारी है या कैसा भी दर्द है तो वह कैसे
दूर होगा ?
जैसे जैसे आप पैरो में एकाग्र होने का अभ्यास करोगे तो आप को पता लगने लगेगा की इनमे कुछ बह रहा है वह प्राण है जब हमारे पैरो में प्राण की कमी होने लगती है तो बीमारिया आना शुरू हो जाती है
यह प्राण की कमी
क्यों होती है?
जैसे जैसे हमारे
और परमात्मा के बीच दूरी बढ़ने लगती है प्राण से हमारा संपर्क कम होने लगता है जब
हम जल्दबाजी में होते है तो उस समय हमारे
शरीर और मन के बीच दूरी बढ़ जाती है यहां हमने 'हमारे ' शब्द का प्रयोग किया है यह चेतना को सम्भोधित करता है अर्थात हम चैतन्य है इसी
से हम बात करते है किसी से संपर्क करते है यह प्राण का ही एक रूप है इसी से हम सभी
प्रकार की अनुभूतिया करते है मन भी इसी शक्ति की मदद से काम करता है पर यहां ध्यान
देने योग्य बात यह है की यह चेतना भी कई रूपों में होती है
जैसे शरीर मेसे
प्राण निकल जाते है तो इसका मतलब यह नहीं है की सभी चेतनाये इस शरीर से मुक्त हो
गयी है या यु कहे की जब हम बहुत थक जाते है तो इसका मतलब यह नहीं है अभी शरीर
चैतन्य नहीं है . पूर्ण रूप से चेतना
मुक्त कोई नहीं हो सकता है . क्यों की चेतना परमात्मा का ही एक गुण है और संसार की
हर एक वस्तु में परमात्मा के सभी गुण मौजूद है . इसलिए जिसे हम निर्जीव वस्तु कहते
है उसमे भी सोयी हुए चेतना रहती है
तो हम बात कर रहे
थे की जब हम जल्दबाजी में होते है तो प्राण से संपर्क कम होने लगता है ऐसा क्यों ? :
ऐसा इसलिए होता
है की हमारे शरीर की जो रचना है वह परमात्मा की चेतना का ही साकार रूप है जिसे हम
प्रकाश भी कहते है अर्थात हमारा शरीर प्रकाश का बना है इसका अनुभव जब हम गहरा
ध्यान करते है तब होता है इसे हम इस वैज्ञानिक तथ्ये के साथ सिद्ध करते है जैसे
सभी रंगो की उत्पति प्रकाश से हुयी है यह विज्ञानं ने सिद्ध कर दिया है और ऊर्जा
को द्रव्यमान में बदला जा सकता है और हम जानते है की प्रकाश एक प्रकार की ऊर्जा ही
है और हमारा शरीर उसी ऊर्जा का संघनित रूप है जिसे मन रुपी सॉफ्टवेयर से नियंत्रित
किया जाता है अब आप ही बताइये जब टी.वि. से रिमोट को दूर ले जायेंगे तो टी.वि.
रिमोट से नियंत्रित नहीं हो पाता है और हमें उठकर टी.वि. के पास आना पड़ता है ठीक
वैसे ही जब हम जल्दबाजी में होते है तो इसका मतलब हमारा मन हमारे शरीर के साथ नहीं
होता है क्यों की जल्दबाजी में हम कोई भी काम करते है तो हमारी शत प्रतिशत ऊर्जा
का इस्तेमाल उस काम में नहीं कर रहे होते है बल्कि हमारी ऊर्जा कई विचारो में खर्च
होती रहती है जैसे भविष्ये में करने वाले कई काम . अर्थात मन के माध्यम से इस शरीर
रुपी रचना के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जो प्राण ऊर्जा हमें परमात्मा से मिल
रही थी अब वह मन के माध्यम से कई जगह जा रही है जैसे २०% शरीर को और ८०% विचारो को
. तो इस रचना के अस्तित्व को खतरा होने लगता है और उसी का परिणाम है शरीर में कई
प्रकार के परिवर्तन होना जैसे चिंता होना , डर लगना , थकान होना , आलस आना , शरीर में कमजोरी आना , लगातार जल्दबाजी में काम करते रहने से फिर धीरे धीरे बीमारिया घेरने लगती है
हमारा शरीर प्राण को कैसे ग्रहण करता है ?
मोटे रूप में बात
करे तो स्वास के माध्यम से , भोजन , पानी के माध्यम से, प्रकाश के माध्यम से हमारा शरीर प्राण को ग्रहण करता है
सूक्ष्म रूप में
बात करे तो हमारा शरीर विचारो से,
आँखों से जो कुछ भी हम
देखते है यदि उस द्र्श्य के प्रति हमारी
भावना बहुत अच्छी तो हमें वहा से भी प्राण मिलते है , जैसे कोई घूमने जाता है तो वहा से ताजा होकर लोटता है
इसी प्रकार कानो
से क्या सुना जा रहा है यदि उसे परमात्मिक अनुभूति कहते है तो फिर कानो के माध्यम
से भी हमारे शरीर को प्राण मिलने लगते है इसी प्रकार स्पर्श से भी हमें प्राण
मिलते है
जैसे एक प्राण
चिकित्सक मरीज को स्पर्श करके उसका रोग दूर करता है.
क्या हम संसार में अकेले है ?
क्या हम संसार
में अकेले है ?
जब हम परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते है तो इस प्रश्न का उत्तर 100 % सही मिलता है . संसार में हम अकेले नहीं है बल्कि पूरा संसार हमारा है . हर जीव हमारा ही है . हर जीव हमारे से बहुत प्यार करता है . पर हम इस राज को हमारे अल्पविकसित मन के कारण समझ नहीं पाते है . आप कभी पुरे सच्चे मन से सोचना की आप को कोन यहां परेशान कर रहा है . आप को पता लगेगा आप खुद ही खुद को परेशान कर रहे हो . हर जीव आप की मदद करना चाह रहा है पर हम हमारी अज्ञानता के कारण खुद की मदद को ही स्वीकार नहीं कर पा रहे है . जैसे आप कभी देखना जब आप सो रहे हो और आप को सोते हुए भी सुकून नहीं मिल रहा है तो आप एक प्रयोग करके देखना की आप खुद को किसी भी काम में लगा देना थोड़ी देर बाद में आप को एक अलग ही ख़ुशी का अहसास होने लगेगा . ऐसा क्या हुआ की बिस्तर पर आराम करने में ख़ुशी नहीं मिली और परिश्रम करने से ख़ुशी मिलने लगी . ऐसा इसलिए हुआ की जब आप बिस्तर पर सो रहे थे तब आप के मन और शरीर के बीच दूरी अधिक थी . अर्थात परमात्मा से दूरी अधिक थी . पर जब आप ने काम करना शुरू किया तो आप का मन धीरे धीरे शरीर पर आने लग गया . आप के शरीर के अंगो में प्राण अब तेजी से और भरपूर मात्रा में बहने लग गया . जीवन शक्ति का संचार अब ठीक से होने लग गया और आप के काम करने के कारण नयी चीज़ का निर्माण होने लग गया जिसे अनुभव करके आप को ख़ुशी मिलने लग गयी . तो आप को इससे यह समझ आयी की मेरे हाथ, पैर, आँखे और दूसरे अंग मेरी बिस्तर पर सोते सोते मदद करना चाह रहे थे पर में समझ नहीं पा रहा था . और जैसे ही मैंने इनकी और ध्यान दिया तो चमत्कार हो गया . अब यह जरुरी नहीं है की ऐसा सभी व्यक्तियों के साथ होगा . हर व्यक्ति का तरीका अलग हो सकता है . पर इससे यह सिद्द हो गया की अज्ञानता के कारण हम अपनी ही मदद नहीं ले पा रहे तो दुसरो से मदद को कैसे लेवे . किसी से मदद को कैसे ग्रहण करे इसका ज्ञान परमात्मा की महिमा से मिलता है . जब हम अंतकरण से पहल करेंगे तो यह 100 % परमात्मा की गारंटी है की सामने वाला आप की बात को समझेगा ही समझेगा . पर यह तब तक पूरा संभव नहीं होगा जब तक हम खुद पर 100 % विश्वास नहीं करते है . इसके लिए परमात्मा की महिमा चैनल पर वीडियो बने हुए है . ऐसे ही आप देखना जब आप एक पशु की सेवा करते है और धीरे धीरे आप दोनों में जब प्रेम होने लगता है और किसी विकट परिस्थिति में जब कोई आप पर आक्रमण करता है तो वह पशु भी आप की रक्षा उस आक्रमण से करता है . जैसे इसे हम इस सच्ची घटना से बहुत आसानी से समझ सकते है की हम संसार में अकेले नहीं है :
एक बार किसी गाँव में एक घर में सास, बहु और उनका छोटा सा परिवार रहता था . तो बहू को सास हमेशा किसी न किसी काम के लिए लड़ती रहती थी . इस कारण बहू बहुत परेशान रहने लग गयी थी . तो बहू ने उस सास को मारने की योजना बनाई की ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी . तो बहु एक वैध जी के पास गयी और सारी बात बताकर जहर की दवाई मांगी . वैध बहुत ही होशियार थे क्यों की वे परमात्मा की महिमा का निरंतर अभ्यास करते थे . वैध जी ने उस बहू को 30 दवा की पाउडर की पुड़िया बनाकर दे दी और कहा की रोज एक पुड़िया तुम्हारी सास के भोजन में मिला देना पर इस एक महीने में आप को अपनी सास को एक भी बार उल्टा जवाब मत देना , जो सास कहे उसको मानते रहना , सास के साथ ही भोजन करना , सास को तुम्हारे पर बिल्कुल भी शक नहीं होना चाहिए . सास के साथ दोनों समय साथ बैठकर चाय पीना . दवा लेकर बहू घर आ गयी . अब बहू ने वैध जी के बताये अनुसार व्यवहार करना शुरू कर दिया . सास बोलती बहू तुमने आज झाड़ू नहीं लगाई . बहू कहती अभी लगा देती हु माँ . सास कहती बहू तुमने सब्जी में नमक कम डाला है आज . अभी और लाती ही माँ . बहू रोज यह नाटक करने लग गयी थी क्यों की बहू सास को खुद के जीवन से हमेशा के लिए हटाना चाहती थी . इसके लालच में उसने सास से झूठा प्रेम करने की द्रढ़ इच्छाशक्ति जगाई . रोज एक जहर की पुड़िया सास की सब्जी या चाय और कुछ में मिला देती थी . अब सास के इतना कहने पर भी बहू के व्यवहार को देखकर सास को बहू पर गुस्सा कम आने लग गया . आठ दस दिन बाद तो सास को भी बहू अच्छी लगने लग गयी थी . बीस दिन बाद तो दोनों में इतना प्रेम हो गया की दोनों खाना भी एक दूसरे के बिना नहीं खाती थी . क्यों की प्रेम ब्रह्माण्ड की वह सबसे बड़ी शक्ति है जिसको यदि हम किसी गलत काम को करने के लिए भी (द्रढ़ इच्छाशक्ति से अपने स्वभाव को बदलने के लिए) काम में लेते है तो यह प्रेम हमारे उस गलत इरादे को ही प्रेम में रूपांतरित कर देता है . अब 25 दिन हो गए थे . अब बहू को अपनी सास के मरने के डर की चिंता होने लग गयी थी . तो 27 दिन बाद वह भागी भागी वैध जी के पास गयी और बोली वैध जी साहब मेरे से तो बहुत बड़ा अनर्थ हो गया . वैध जी बोले क्या हुआ ?. मुझे तो अब पता लगा है की मेरी सास तो मुझे बहुत प्रेम करती है और वह तो मेरे बिना भोजन भी नहीं करती है और मै उनको पिछले 26 दिन से मारने के लिए जहर दे रही थी . और 30 दिन पुरे होते ही वह तो मर जाएगी . वैध जी साहब मेरी सास के प्राण बचा लो . मुझे आप ऐसी दवा दो जिससे मेरी सास के प्राण बच जाये . तो वैध जी साहब ने गुस्से(भीतर से प्रेम) में आकर बोला की पहले तो सास को मारने की दवा ले जाती हो और कहती थी की मेरी सास बहुत खराब है और अब कहती हो वह मर जाएगी उसके प्राण बचालो वह तो बहुत अच्छी है . वैध जी ने कहा अब मेरे पास ऐसी कोई अमृत घुटी नहीं है जिससे की मै आपकी सास के प्राण बचा सकू . बहू ने वैध जी से बहुत आग्रह किया पर वैध जी ने मना कर दिया तो वह जोर जोर से वही रोने लग गयी और कहने लगी की मेरी सास को बचा लो वैध जी साहब नहीं तो मै यही आत्मदाह कर लुंगी आप का नाम लेकर . अपने अंतकरण से वैध जी यह सारा नाटक देख रहे थे . तो अचानक वैध जी ने बोला बेटी इधर आओ . आपकी सास को कुछ भी नहीं होगा. मैंने जो आप को दवा दी थी वह केवल खट्टा मीठा चूरण था जिससे आप की सास का पूरा पेट अब साफ़ हो गया है और वह अब पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गयी है . बेटी तू चिंता मत कर घर जाकर इसी तरह अपने स्वभाव को और निखार और अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित कर और उस पर पूरी ईमानदारी से चल . इसके लिए बेटी तू निरन्तर परमात्मा की महिमा का अभ्यास शुरू कर ताकि तेरे को हर पल आनंद की अनुभूति हो . इतना कहते ही वह वैध जी के चरणों में बैठ गयी और बोली आप मुझे क्षमा करदो वैध जी साहब . वैध जी साहब बोले बेटी मै ऐसे मामले रोज देखता हु . मुझे मालूम है इंसान क्यों परेशान रहता है . वह परमात्मा की महिमा का अभ्यास पूरी ईमानदारी से नहीं करता है इसलिए खुद को इस संसार में अकेला पाता है . जबकि कोई भी हम मेसे इस संसार में अकेला नहीं है . जैसे इस उपरोक्त उदाहरण में बहू अपनी सास को खुद से अलग मानती थी पर हमने पुरे वैज्ञानिक प्रमाण के साथ यह सिद्ध कर दिया की कोई भी व्यक्ति इस संसार में अकेला नहीं है . वैध जी साहब काफी समय से परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते थे . इसलिए जो व्यक्ति परमात्मा की महिमा का अभ्यास करता है वह लोगों को जोड़ता है तोड़ता नहीं . इसलिए जोड़ना अहिंसा है और तोडना हिंसा है . परमात्मा की महिमा हमे अहिंसा के मार्ग पर चलना सिखाती है . धन्यवाद जी .
Saturday, February 17, 2024
आखिर क्या है पाप और पुण्य का गहरा राज भाग 2
खुद पर 100 % विश्वास को कैसे संभव करे भाग 1 ?
Thursday, February 15, 2024
खुद पर 100 % विश्वास को कैसे संभव करे ? भाग 1
खुद पर 100 % विश्वास को कैसे
संभव करे ? भाग 1
केवल परमात्मा की महिमा के अभ्यास से ही यह संभव होता है बाकी विधियों से यह आंशिक संभव होता है . ऐसा क्यों ? . क्यों की परमात्मा की महिमा के अभ्यास का अर्थ है सिर से लेकर पाँव तक की हमारे शरीर की जो रचना है उसमे एकाग्र होकर अपने दैनिक दिनचर्या के सभी काम करना . और इस दौरान जो भी हमे शारीरिक और मानसिक और बाहरी अनुभूतियाँ होती है उन सभी को 100 % परमात्मिक अनुभूति स्वीकार कर लेना . अर्थात यह मान लेना की केवल परमात्मा का अस्तित्व है ,कण कण में परमात्मा है , परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है . इस अभ्यास की शुरुआत भूमध्य पर ध्यान से करनी होती है . भूमध्य हमारी दोनों आँखों के बीच के क्षेत्र अर्थात जहा महिलाएं बिंदी लगाती है और पुरुष टीका लगाते है को कहते है . सबसे पहले हम धीरे धीरे भूमध्य कहा है यह याद करते है, यहां क्या क्या हो रहा है इसका अनुभव करते है, चाहे हम कोई काम कर रहे हो या चल रहे हो , या बैठे हो , या लेटे हो या कुछ भी कर रहे हो . जब हम रास्ते में चल रहे हो तो हमें मालूम होना चाहिए भूमध्य कहा है , यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए फिर सामने देखते हुए चलना चाहिए . अर्थात हमारा ज्यादा ध्यान भूमध्य पर और जरुरी ध्यान (ताकि रास्ता दीखता रहे) रास्ते पर होना चाहिए . शुरू शुरू में यदि आपको ऐसा करने में कठिनाई हो रही है तो आप पहले शांत स्थान पर बैठकर इसके अभ्यास की शुरुआत कर सकते है फिर धीरे धीरे आप काम करते हुए भी करने लगेंगे . अभ्यास की प्रगति साधक की दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है . क्यों की इच्छाशक्ति से ही पहले कदम की शुरुआत होती है . जब हम बैठकर भूमध्य पर मन को लाते है तो यहां अन्धकार प्रकाश का जंक्शन दिखाई देता है . कुछ और भी दिख सकता है यह साधक के संचित कर्मो पर निर्भर करता है . पर कुछ भी दिख रहा हो वह केवल परमात्मा का साकार रूप है. फिर धीरे धीरे हमें अनुभव होने लगता है की कोई शक्ति है जो हमारे सिर के पीछे के हिस्से में से प्रवेश करती है और सिर के पीछे गुच्छे के रूप में जमा होने लगती है यह क्षेत्र विज्ञान की भाषा में मेडुला कहलाता है . इस मेडुला के ठीक पास में हमारी बुध्दि की साकार रचना होती है . इस मेडुला को परमात्मा का मुख भी कहते है . इसे परमात्मा की वेदी भी कहते है . मेडुला की सरंचना इतनी जटिल होती है की यदि इसमें किसी भी प्रकार की विकृति आ जाये तो इसका ऑपरेशन संभव नहीं है . इसका ऑपरेशन पहले भी संभव नहीं था और भविष्य में भी संभव नहीं होगा . क्यों की इसे परमात्मा स्वयं अपनी माया से प्रकट करते है . वैसे पूरा शरीर ही परमात्मा की माया से प्रकट होता है पर मेडुला के अलावा बाकि हिस्सों पर विज्ञानं ने काफी महारत हांसिल कर ली है जो कि परमात्मा की इच्छा से संभव हुआ है पर मेडुला का पूरा ज्ञान केवल परमात्मा के उन्ही भक्तों को होता है जो परमात्मा से अनन्य प्रेम करते है. जब हम धीरे धीरे मन को भूमध्य के साथ साथ सिर के पीछे के हिस्से में लाते है तो हमे पता लगने लगता है की कैसे मेडुला में शक्ति जमा होती है और आगे के चैनलो में प्रवाहित होती है . जैसे बुध्दि की रचना प्रकट होती है , भूमध्य पर शक्ति आती है जिससे ललाट की रचना प्रकट होती है , मेडुला से शक्ति रीढ़ की हड्डी में प्रवाहित होती है जहा से हमारे शरीर की सभी नश नाड़ियो में जाती है . अर्थात अब हमारा मन अपने आप ही धीरे धीरे श्वास पर आने लगता है , चेहरे पर आने लगता है , गले पर आने लगता है , सीने पर आने लगता है , ऐसे करते करते शरीर के सभी हिस्सों में हमारे मन की एकाग्रता बढ़ने लगती है . अर्थात हमारे शरीर और मन के बीच की दूरी घटने लगती है . जैसे जैसे यह दूरी घटने लगती है हमारे शरीर में कई प्रकार के परिवर्तन होने लगते है . यदि हम इन परिवर्तनों को सुख दुःख कहने लगते है तो यह ध्यान विधि छूटने लगती है . क्यों की यदि हम(चेतना) इनको सहन नहीं कर पाते है तो हमारा मन हमारे को यहां से भगाने लगता है और हम मन की चाल को समझ नहीं पाते है और साधना में कमी बता देते है . इसका उपाय यह है की यह अभ्यास बड़ी सावधानी से धीरे धीरे करना चाहिए और जैसे जैसे हमे इसका फायदा मिलने लगे इसका समय बढ़ाना चाहिए . फायदों की पहचान यह है की हमारी जीवन शक्ति बढ़ने लगती है , शरीर में स्फूर्ति आने लगती है , डर कम होने लगता है . पर यदि हम इस अभ्यास को दृढ़ इच्छाशक्ति से ज्यादा समय के लिए करने लगते है तो शरीर में तीव्र परिवर्तन होने लगते है जैसे शरीर के किसी हिस्से में दर्द होना , सिर में भारीपन होना , चक्कर आना , नींद आना , थकान होना , आलस आना , आँखों के आगे अँधेरा छा जाना , किसी हिस्से में सुन्नपन होना ऐसे और भी कई प्रकार के परिवर्तन प्रकट हो सकते है . यह साधना को कितनी गुणवत्ता के साथ किया जा रहा है इस पर निर्भर करता है . इसलिए इन परिवर्तनों से बिल्कुल भी डरना नहीं चाहिए . अब यह हमारे लक्ष्य पर निर्भर करता है की लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमे कितनी साधना की जरुरत है . यदि हम कम समय में यह मुकाम हांसिल करना चाहते है तो फिर तीव्र परिवर्तनों को प्रेम से सहन करना बहुत जरुरी है. परिवर्तनों को दुखी होकर स्वीकार करते है तो लाभ की जगह हानि होने लगती है अर्थात मन को इसके लिए राजी करना पड़ता है, इसको प्यार से पुचकार के ,सहला के , बड़ी समझदारी से इसकी चाल को समझ के अपनी बात समझाकर अर्थात अब मन हमारी बात मानने लग जाये तो इन परिवर्तनों को मन प्रेम से स्वीकार करने लगता है और फिर धीरे धीरे मन को इनको स्वीकार करने की आदत पड़ जाती है . क्यों की मन आदत के साथ काम करता है . वैसे भी यदि हमें जीवन की दिशा उचाई की तरफ मोड़नी है तो वर्तमान दिशा के विरुद्ध तो बल लगाना ही पड़ेगा . और यदि हम हमारे लक्ष्य को धीरे धीरे हांसिल करना चाहते है तो फिर अभ्यास भी धीरे धीरे कर सकते है . यह कुल मिलाकर साधक की खुद की इच्छा पर निर्भर करता है की वह आखिर चाहता क्या है . अब हम सब यह सोच रहे होंगे की इससे खुद पर 100 % विश्वास का क्या सम्बन्ध है ?. इस अभ्यास के माध्यम से हम खुद के स्वरूप को जानने लगते है , हम कोन है , आप कोन है , यह संसार क्या है , परमात्मा क्या है , जीवन में किसी भी चीज़ को कैसे प्राप्त करे इसका ज्ञान मिलने लगता है , हमारे मन और बुध्दि विकसित होने लगते है , हम सही गलत का निर्णय लेने में सक्षम होने लगते है , जीवन से सभी बीमारियों की हमेशा के लिए छुट्टी होने लगती है , हर पल खुश रहने लगते है , कैसे हमारे शरीर का निर्माण होता है कैसे हम इसमें परिवर्तन कर सकते है कैसे हम इसमें नया निर्माण कर सकते है इसका पूरा ज्ञान होने लगता है . हमे अनुभव होने लगता है की हमारे और परमात्मा के बीच दूरी शून्य है . अर्थात परमात्मा स्वयं रचनाकार बनकर इस शरीर रुपी रचना के साथ होते है . जब हमारी साधना बहुत गहरी होने लगती है अर्थात हम हमारे शरीर के हर हिस्से को अनुभव कर पाते है , बाहर क्या हो रहा है इसका सही ज्ञान होने लगता है तो हमारा मन अपने आप ही शांत होने लगता है , स्थिर होने लगता है . फिर हमारे अंदर पूर्ण सेवा भाव प्रकट होने लगता है , जीवन में सन्तुष्टि प्राप्त होने लगती है . हमे क्या करना है , कैसे करना , कब करना है इन सबका ज्ञान होने लगता है . क्यों की अब हम परमात्मा से बहुत गहराई तक जुड़ने लगते है . हमे पता चलने लगता है की ब्रह्माण्ड की सभी गतिविधियां परमात्मा की इच्छा से चलती है . मृत्यु पर पूर्ण नियंत्रण आ जाता है क्यों की हमे ज्ञान हो जाता है की किसी भी चीज़ को मार नहीं सकते . जैसे ही हम मारने की कोशिस करते है वह दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाती है क्यों की कण कण में केवल प्राण है , परमात्मा है . हमे निर्माण का , सुरक्षा का और परिवर्तन का ज्ञान होने लगता है . हमे यह अनुभव हो जाता की हम सर्वव्यापी है , पूरा संसार हमारा ही एक विचार है जो दृश्य रूप में प्रकट हो रहा है . हर जीव हमे अपना लगने लगता है , संसार बहुत सूंदर लगने लगता है , सभी जीवो में आपसी एकता का अनुभव होने लगता है , जीवन की सभी शिकायते हमेशा के लिए समाप्त होने लगती है . इससे हमे खुद पर यह विश्वास होने लगता है की हम कुछ भी कर सकते है . सभी कर्म बंधन समाप्त होने लगते है . हमारा भूत भविष्य दिखाई देने लगता है . हमारे माध्यम से किये गए सभी पापों से हमे मुक्ति मिलने लगती है . हम सही मार्ग पर चलना शुरू कर देते है . अब हम प्राकृतिक जीवन जीने लगते है . जब हम इस शरीर में एकाग्र ना होकर बाहर किसी वस्तु पर या किसी मन्त्र पर या किसी अन्य विधि से ध्यान करते है तो उनसे हमे आंशिक फायदा मिलता है और समय बहुत ज्यादा लगता है . क्यों की शरीर के अलावा बाकी अन्य साधन हर पल हमारे साथ नहीं होते है इसलिए साधना में निरंतरता नहीं आ पाती है . पर और विधिया को हम मेसे ज्यादातर इंसान शुरू से प्रयोग करते आ रहे है इसलिए हमारे मन की सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होने की आदत नहीं है इसलिए यह साधना ज्यादातर व्यक्तियों को कठीन लगती है . पर पुरे संसार में यह ध्यान विधि सबसे ज्यादा प्रभावशाली है .
Sunday, February 11, 2024
काणा,लुल्या ,लंगड्या में खोट नहीं बहुत गुण होते है परमात्मा के इस राज को ऐसे जाने
काणा,लुल्या ,लंगड्या में खोट
नहीं बहुत गुण होते है परमात्मा के इस राज को ऐसे जाने
समाज में प्रचलित एक कहावत है की :
काणा ,लुल्या ,लंगड्या में खोट होता है और प्राय लोग यह कहते मिलेंगे की इनसे बचकर रहना चाहिए . यह भी कहते है की यह बिना बात के ही झगड़ा करने लगते है , लोगो को परेशान करते है , इनकी नज़र लग जाती है ऐसे तमाम प्रकार के मिथ समाज में प्रचलित है . जब हम परमात्मा की महिमा का अभ्यास करना शुरू करते है अर्थात सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होने लगते है और सभी शारीरिक अनुभूतियों से प्रेम करने लगते है तो हमे यह ज्ञान होता है की इन व्यक्तियो में ईश्वरीय गुण सामान्य लोगो से ज्यादा होते है अर्थात परमात्मा और इनके बीच की दूरी सामान्य लोगो से कम होती है . इसका कारण यह होता है की शारीरिक विक्षिप्तता के कारण यह लोग खुद ही पहले खुद में हीन भावना विकसित कर लेते है और फिर समाज को इसी दृष्टि से देखने लगते है की कोई भी हमे प्यार नहीं करता है सब हमारे में ही कमीया निकालते है और फिर धीरे धीरे ये व्यक्ति यह समझने लगती है की यह दुनिया तो बेकार है हमारा तो परमात्मा ही मालिक है . और फिर धीरे धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ने लगते है . परमात्मा में भक्ति बढ़ने के कारण इनमे ईश्वर्य शक्तिया भी बढ़ने लगती है और इस कारण से जब ये व्यक्ति किसी को कोई बात दिल से बोल देते है तो वह सच होने लगती है अर्थात इनकी वाणी में सिद्द्ता आने लगती है . और यदि इनके माध्यम से कही गयी बात नकारात्मक है तो हम सब यह घोषणा कर देते है की इनकी नज़र लगती है , ये सही नहीं है . परमात्मा का यह पूरा खेल केवल एक साइक्लोजी मात्र है . परमात्मा की महिमा के अभ्यास से पता चलता है की आखिर इनको हमारे पर गुस्सा क्यों आता है . क्यों की जो कोई भी आता है और इनको छेड़ के चला जाता है जैसे कोई इनको काणा कहकर इनका तिरस्कार करता है तो इनको गुस्सा आता है जैसे चोर को चोर कहेंगे तो उसको गुस्सा आएगा पर साहूकार को साहूकार कहेंगे तो उसको गुस्सा नहीं आएगा . ऐसा क्यों ? . यही तो माया है . क्यों की माया के पीछे स्वयं परमात्मा है . इसकी पहचान यह है की कोई भी व्यक्ति खुद की कमी सुनना नहीं चाहता है क्यों की सत्य तो यह है की हर व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है . पर इस सत्य को पूर्ण रूप से अनुभव नहीं कर रहा है माया के कारण . इसलिए जब कोई दूसरा व्यक्ति इसको काणा कहता है तो यह मानने को तैयार नहीं होता है. क्यों की वह खुद ही खुद को स्वीकार नहीं कर रहा है तो दूसरे को कैसे स्वीकार करेगा . और फिर सबसे बड़े मजे की बात तो यह है की जब परमात्मा सभी को सर्वगुण संपन्न बना देते तो फिर लीला कैसे करते ?. इसलिए जब तक हम परमात्मा की महिमा का गहन अभ्यास नहीं करेंगे तब तक यह बीमारिया लगी रहेगी . यह बात उन व्यक्तियो पर लागू नहीं होती है जो इस शरीर भाव को जान गए है . यह केवल परमात्मा की लीला के कारण होता है . जैसे हमने कई जगह सुना भी है की नज़र से तो पत्थर भी फूट भी जाता है . हां यह सही बात है पर आंशिक सत्य है . कैसे ?. जब नज़र डालने वाले व्यक्ति की नकारात्मक ऊर्जा जिस पर नज़र डाली जा रही है उसकी सकारात्मक ऊर्जा से ज्यादा है तो अवश्य यह व्यक्ति प्रभावित करेगा . पर यदि नज़र डालने वाला व्यक्ति किसी सिद्द पुरुष पर नकारात्मक नज़र डाले तो वह उसको प्रभावित नहीं कर पाता है . और कई बार तो यह भी सच हो जाता है की खुद नज़र लगाने वाला व्यक्ति ही मुसीबत में पड़ जाता है . यह निर्भर करता है सामने वाले व्यक्ति की भावना पर . यदि वह बहुत दयालु है तो इसको माफ़ कर देगा और यदि वह इस नज़र लगाने वाले व्यक्ति से बहुत तंग आ चूका है तो फिर वह अपनी शक्ति का प्रयोग करता है और इसको सबक सिखाता है . पर जो परमात्मा की महिमा का निरंतर अभ्यास करता है वह नज़र डालने वाले को भी परमात्मा के रूप में देखने लगता है . क्यों की उसमे इस अभ्यास के कारण सभी को परमात्मा के रूप में देखने की शक्ति प्राप्त होने लगती है . और हम तो जानते ही है की परमात्मा की तो केवल प्रेम की नज़र होती है . इसलिए हम देश विदेश में कई जगह देखते है की वहा कुत्तो की भी पूजा की जाती है . क्यों की परमात्मा को वह भक्त सबसे प्रिये है जो सभी जीवो को समान भाव से देखता है . पर इसका मतलब यह नहीं है की आप मानव से महामानव की तरफ बढ़ रहे हो और कुत्ते को साथ लेकर सो रहे हो . इससे समाज में एक प्रकार से अव्यवस्था आ जाती है . क्यों की यदि एक व्यक्ति कहे की में तो कुत्ते में भी परमात्मा देखता हु इसलिए साथ लेकर सोता हु . तब यदि यह पुरुष है और शादीसुदा है और इसकी पत्नी को बिल्ली में परमात्मा दीखता है और वह बिल्ली को साथ लेकर सोती है तो क्या होगा जब ये दोनों पति पत्नी एक ही बिस्तर पर सोयेंगे . कुत्ता बिल्ली को खा जायेगा और इनके बीच में युद्द हो जायेगा . क्या ऐसे परिवार में सुख शांति आएगी ? . नहीं ,कभी नहीं . हमे यह समझना ही पड़ेगा की हर जीव को प्रेम करना है पर उसको प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र रहने देना है . जिस जीव की जो प्राकृतिक जगह है , जो उसका प्राकृतिक भोजन है वही उसको मिलना चाहिए . तभी तो हम देखते है की तेंदुआ हमारी कॉलोनी में आ गया . अरे भाई तेंदुआ नहीं आया हमने जंगलो में हमारे लालच के कारण अतिक्रमण कर लिया जिसका प्रकृति हमे भुक्तान कर रही है . व्यक्ति तब तक इन बातो को नहीं मानता है जब तक वह खुद इन बातो की चपेट में नहीं आ जाता है . या यु कहे की उसको मनुष्य होने का अहसास ना हो . उसको खुद की महानता का अहसास ना हो . वह अपना जीवन केवल पशुओ के साथ रहकर ही गुजारना चाहता हो इंसानो से उसको कोई ख़ास लगाव ना हो किन्ही पुराणी चोटों के कारण जो उसको इंसानो से मिली हो . जिससे ऐसा व्यक्ति इंसानो से तो घृणा करने लगता है और पशुओ से प्रेम . इसलिए हमे किसी में भी खोट देखने की जरुरत नहीं है सच में वह खोट हमारे खुद में होता है पर हमारे संचित कर्मो के कारण हमारे को खुद में खोट नज़र नहीं आता है . येही तो माया का प्रभाव है . इसलिए यदि हम हमेशा के लिए सुखी होना चाहते है तो इसका एक ही उपाय है निरन्तर परमात्मा की महिमा का अभ्यास करना .
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परमात्मा की महिमा क्या है ? परमात्मा की महिमा का अर्थ है की कैसे हम अपने स्वरूप को जाने , परमात्मा को जाने , हमारे और परमात्मा के बीच दू...