Thursday, February 15, 2024

खुद पर 100 % विश्वास को कैसे संभव करे ? भाग 1

 

खुद पर 100 % विश्वास को कैसे संभव करे ? भाग 1

केवल परमात्मा की महिमा के अभ्यास से ही यह संभव होता है बाकी विधियों से यह आंशिक संभव होता है . ऐसा क्यों ? . क्यों की परमात्मा की महिमा के अभ्यास का अर्थ है सिर से लेकर पाँव तक की हमारे शरीर की जो रचना है उसमे एकाग्र होकर अपने दैनिक दिनचर्या के सभी काम करना . और इस दौरान जो भी हमे शारीरिक और मानसिक और बाहरी अनुभूतियाँ होती है उन सभी को 100 % परमात्मिक अनुभूति स्वीकार कर लेना . अर्थात यह मान लेना की केवल परमात्मा का अस्तित्व है ,कण कण में परमात्मा है  , परमात्मा के अलावा कुछ भी नहीं है . इस अभ्यास की शुरुआत भूमध्य पर ध्यान से करनी होती है . भूमध्य हमारी दोनों आँखों के बीच के क्षेत्र अर्थात जहा महिलाएं बिंदी लगाती है और पुरुष टीका लगाते है को कहते है . सबसे पहले हम धीरे धीरे भूमध्य कहा है यह याद करते है, यहां  क्या क्या हो रहा है इसका अनुभव करते है, चाहे हम कोई काम कर रहे हो या चल रहे हो , या बैठे हो , या लेटे हो या कुछ भी कर रहे हो . जब हम रास्ते में चल रहे हो तो हमें मालूम होना चाहिए भूमध्य कहा है , यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए फिर सामने देखते हुए चलना चाहिए . अर्थात हमारा ज्यादा ध्यान भूमध्य पर और जरुरी ध्यान (ताकि रास्ता दीखता रहे) रास्ते पर होना चाहिए . शुरू शुरू में यदि आपको ऐसा करने में कठिनाई हो रही है तो आप पहले शांत स्थान पर बैठकर इसके अभ्यास की शुरुआत कर सकते है फिर धीरे धीरे आप काम करते हुए भी करने लगेंगे . अभ्यास की प्रगति साधक की दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है . क्यों की इच्छाशक्ति से ही पहले कदम की शुरुआत होती है . जब हम बैठकर भूमध्य पर मन को लाते है तो यहां  अन्धकार प्रकाश का जंक्शन दिखाई देता है . कुछ और भी दिख सकता है यह साधक के संचित कर्मो पर निर्भर करता है . पर कुछ भी दिख रहा हो वह केवल परमात्मा का साकार रूप है. फिर धीरे धीरे हमें अनुभव होने लगता है की कोई शक्ति है जो हमारे सिर के पीछे के हिस्से में से प्रवेश करती है  और सिर के पीछे गुच्छे के रूप में जमा होने लगती है यह क्षेत्र विज्ञान की भाषा में मेडुला कहलाता है . इस मेडुला के ठीक पास में हमारी बुध्दि की साकार रचना होती है . इस मेडुला को परमात्मा का मुख भी कहते है . इसे परमात्मा की वेदी भी कहते है . मेडुला की सरंचना इतनी जटिल होती है की यदि इसमें किसी भी प्रकार की विकृति आ जाये तो इसका ऑपरेशन संभव नहीं है . इसका ऑपरेशन पहले भी संभव नहीं था और भविष्य में भी संभव नहीं होगा . क्यों की  इसे परमात्मा स्वयं अपनी माया से प्रकट करते है . वैसे पूरा शरीर ही परमात्मा की माया से प्रकट होता है पर मेडुला के अलावा बाकि हिस्सों पर विज्ञानं ने काफी महारत हांसिल कर ली है जो कि परमात्मा की इच्छा से संभव हुआ है पर मेडुला का पूरा ज्ञान केवल परमात्मा के उन्ही भक्तों को होता है जो परमात्मा से अनन्य प्रेम करते है. जब हम धीरे धीरे मन को भूमध्य के साथ साथ सिर के पीछे के हिस्से में लाते है तो हमे पता लगने लगता है की कैसे मेडुला में शक्ति जमा होती है और आगे के चैनलो में प्रवाहित होती है . जैसे बुध्दि की रचना प्रकट होती है , भूमध्य पर शक्ति आती है जिससे ललाट की रचना प्रकट होती है , मेडुला से शक्ति रीढ़ की हड्डी में प्रवाहित होती है जहा से हमारे शरीर की सभी नश नाड़ियो में जाती है . अर्थात अब हमारा मन अपने आप ही धीरे धीरे श्वास पर आने लगता है , चेहरे पर आने लगता है , गले पर आने लगता है , सीने पर आने लगता है , ऐसे करते करते शरीर के सभी हिस्सों में हमारे मन की एकाग्रता बढ़ने लगती है . अर्थात हमारे शरीर और मन के बीच की दूरी घटने लगती है . जैसे जैसे यह दूरी घटने लगती है हमारे शरीर में कई प्रकार के परिवर्तन होने लगते है . यदि हम इन परिवर्तनों को सुख दुःख कहने लगते है तो यह ध्यान विधि छूटने लगती है . क्यों की यदि हम(चेतना) इनको सहन नहीं कर पाते है तो हमारा मन हमारे को यहां से भगाने लगता है और हम मन  की चाल को समझ नहीं पाते है और साधना में कमी बता देते है . इसका उपाय यह है की यह अभ्यास बड़ी सावधानी से धीरे धीरे करना चाहिए और जैसे जैसे हमे इसका फायदा मिलने लगे इसका समय बढ़ाना चाहिए . फायदों की पहचान यह है की हमारी जीवन शक्ति बढ़ने लगती है , शरीर में स्फूर्ति आने लगती है , डर कम होने लगता है . पर यदि हम इस अभ्यास को दृढ़ इच्छाशक्ति से ज्यादा समय के लिए करने लगते है तो शरीर में तीव्र परिवर्तन होने लगते है जैसे शरीर के किसी हिस्से में दर्द होना , सिर में भारीपन होना , चक्कर आना , नींद आना , थकान होना , आलस आना , आँखों के आगे अँधेरा छा  जाना , किसी हिस्से में सुन्नपन होना ऐसे और भी कई प्रकार के परिवर्तन प्रकट हो सकते है . यह साधना को कितनी गुणवत्ता के साथ किया जा रहा है इस पर निर्भर करता है . इसलिए इन परिवर्तनों से बिल्कुल भी डरना नहीं चाहिए . अब यह हमारे लक्ष्य पर निर्भर करता है की लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमे कितनी साधना की जरुरत है . यदि हम कम समय में यह मुकाम हांसिल करना चाहते है तो फिर तीव्र परिवर्तनों को प्रेम से सहन करना बहुत जरुरी है. परिवर्तनों को दुखी होकर स्वीकार करते है तो लाभ की जगह हानि होने लगती है अर्थात मन को इसके लिए राजी करना पड़ता है, इसको प्यार से पुचकार के ,सहला के , बड़ी समझदारी से इसकी चाल को समझ के अपनी बात समझाकर अर्थात अब मन हमारी बात मानने लग जाये तो इन परिवर्तनों को मन प्रेम से स्वीकार करने लगता है और फिर धीरे धीरे मन को इनको स्वीकार करने की आदत पड़ जाती है . क्यों की मन आदत के साथ काम करता है . वैसे भी यदि हमें जीवन की दिशा उचाई की तरफ मोड़नी है तो वर्तमान दिशा के विरुद्ध तो बल लगाना ही पड़ेगा .  और यदि हम हमारे लक्ष्य को धीरे धीरे हांसिल करना चाहते है तो फिर अभ्यास भी धीरे धीरे कर सकते है . यह कुल मिलाकर साधक की खुद की इच्छा पर निर्भर करता है की वह आखिर चाहता क्या है . अब हम सब यह सोच रहे होंगे की इससे खुद पर 100 % विश्वास का क्या सम्बन्ध है ?. इस अभ्यास के माध्यम से हम खुद के स्वरूप को जानने लगते है , हम कोन है , आप कोन है , यह संसार क्या है , परमात्मा क्या है , जीवन में किसी भी चीज़ को कैसे प्राप्त करे इसका ज्ञान मिलने लगता है , हमारे मन और बुध्दि विकसित होने लगते है , हम सही गलत का निर्णय लेने में सक्षम होने लगते है , जीवन से सभी बीमारियों की हमेशा के लिए छुट्टी होने लगती है , हर पल खुश रहने लगते है , कैसे हमारे शरीर का निर्माण होता है कैसे हम इसमें परिवर्तन कर सकते है कैसे हम इसमें नया निर्माण कर सकते है इसका पूरा ज्ञान होने लगता है . हमे अनुभव होने लगता है की हमारे और परमात्मा के बीच दूरी शून्य है . अर्थात परमात्मा स्वयं रचनाकार बनकर इस शरीर रुपी रचना के साथ होते है . जब हमारी साधना बहुत गहरी होने लगती है अर्थात हम हमारे शरीर के हर हिस्से को अनुभव कर पाते है , बाहर क्या हो रहा है इसका सही ज्ञान होने लगता है तो हमारा मन अपने आप ही शांत होने लगता है , स्थिर होने लगता है . फिर हमारे अंदर पूर्ण सेवा भाव प्रकट होने लगता है , जीवन में सन्तुष्टि प्राप्त होने लगती है . हमे क्या करना है , कैसे करना , कब करना है इन सबका ज्ञान होने लगता है . क्यों की अब हम परमात्मा से बहुत गहराई तक जुड़ने लगते है . हमे पता चलने लगता है की ब्रह्माण्ड की सभी गतिविधियां परमात्मा की इच्छा से चलती है . मृत्यु पर पूर्ण नियंत्रण आ जाता है क्यों की हमे ज्ञान हो जाता है की किसी भी चीज़ को मार नहीं सकते . जैसे ही हम मारने की कोशिस करते है वह दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाती है क्यों की कण कण में केवल प्राण है , परमात्मा है . हमे निर्माण का , सुरक्षा का और परिवर्तन का ज्ञान होने लगता है . हमे यह अनुभव हो जाता की हम सर्वव्यापी है , पूरा संसार हमारा ही एक विचार है जो दृश्य रूप में प्रकट हो रहा है . हर जीव हमे अपना लगने लगता है , संसार बहुत सूंदर लगने लगता है , सभी जीवो में आपसी एकता का अनुभव होने लगता है , जीवन की सभी शिकायते हमेशा के लिए समाप्त होने लगती है . इससे हमे खुद पर यह विश्वास होने लगता है की हम कुछ भी कर सकते है . सभी कर्म बंधन समाप्त होने लगते है . हमारा भूत भविष्य दिखाई देने लगता है . हमारे माध्यम से किये गए सभी पापों से हमे मुक्ति मिलने लगती है . हम सही मार्ग पर चलना शुरू कर देते है . अब हम प्राकृतिक जीवन जीने लगते है . जब हम इस शरीर में एकाग्र ना होकर बाहर  किसी वस्तु  पर या किसी मन्त्र पर या किसी अन्य विधि से ध्यान करते है तो उनसे हमे आंशिक फायदा मिलता है और समय बहुत ज्यादा लगता है . क्यों की शरीर के अलावा बाकी अन्य साधन हर पल हमारे साथ नहीं होते है इसलिए साधना में निरंतरता नहीं आ पाती है . पर और विधिया को हम मेसे ज्यादातर इंसान शुरू से प्रयोग करते आ रहे है इसलिए हमारे मन की सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होने की आदत नहीं है इसलिए यह साधना ज्यादातर व्यक्तियों को कठीन लगती है . पर पुरे संसार में यह ध्यान विधि सबसे ज्यादा प्रभावशाली है .

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