Monday, February 19, 2024

क्या हम संसार में अकेले है ?

क्या हम संसार में अकेले है ?

जब हम परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते है तो इस प्रश्न का उत्तर 100 % सही मिलता है . संसार में हम अकेले नहीं है बल्कि पूरा संसार हमारा है . हर जीव हमारा ही है . हर जीव हमारे से बहुत प्यार करता है . पर हम इस राज को हमारे अल्पविकसित मन के कारण समझ नहीं पाते है . आप कभी पुरे सच्चे मन से सोचना की आप को कोन यहां परेशान कर रहा है . आप को पता लगेगा आप खुद ही खुद को परेशान कर रहे हो . हर जीव आप की मदद करना चाह रहा है पर हम हमारी अज्ञानता के कारण खुद की मदद को ही स्वीकार नहीं कर पा रहे है . जैसे आप कभी देखना जब आप सो रहे हो और आप को सोते हुए भी सुकून नहीं मिल रहा है तो आप एक प्रयोग करके देखना की आप खुद को किसी भी काम में लगा देना थोड़ी देर बाद में आप को एक अलग ही ख़ुशी का अहसास होने लगेगा . ऐसा क्या हुआ की बिस्तर पर आराम करने में ख़ुशी नहीं मिली और परिश्रम करने से ख़ुशी मिलने लगी . ऐसा इसलिए हुआ की जब आप बिस्तर पर सो रहे थे तब आप के मन और शरीर के बीच दूरी अधिक थी . अर्थात परमात्मा से दूरी अधिक थी . पर जब आप ने काम करना शुरू किया तो आप का मन धीरे धीरे शरीर पर आने लग गया . आप के शरीर के अंगो में प्राण अब तेजी से और भरपूर मात्रा में बहने लग गया . जीवन शक्ति का संचार अब ठीक से होने लग गया और आप के काम करने के कारण नयी चीज़ का निर्माण होने लग गया जिसे अनुभव करके आप को ख़ुशी मिलने लग गयी . तो आप को इससे यह समझ आयी की मेरे हाथ, पैर, आँखे और दूसरे अंग मेरी बिस्तर पर सोते सोते मदद करना चाह रहे थे पर में समझ नहीं पा रहा था .  और जैसे ही मैंने इनकी और ध्यान दिया तो चमत्कार हो गया . अब यह जरुरी नहीं है की ऐसा सभी व्यक्तियों के साथ होगा . हर व्यक्ति का तरीका अलग हो सकता है . पर इससे यह सिद्द हो गया की अज्ञानता के कारण हम अपनी ही मदद नहीं ले पा रहे तो दुसरो से मदद को कैसे लेवे . किसी से मदद को कैसे ग्रहण करे इसका ज्ञान परमात्मा की महिमा से मिलता है . जब हम अंतकरण से पहल करेंगे तो यह 100 % परमात्मा की गारंटी है की सामने वाला आप की बात को समझेगा ही समझेगा . पर यह तब तक पूरा संभव नहीं होगा जब तक हम खुद पर 100 % विश्वास नहीं करते है . इसके लिए परमात्मा की महिमा चैनल पर वीडियो बने हुए है . ऐसे ही आप देखना जब आप एक पशु की सेवा करते है और धीरे धीरे आप दोनों में जब प्रेम होने लगता है और किसी विकट परिस्थिति में जब कोई आप पर आक्रमण करता है तो वह पशु भी आप की रक्षा उस आक्रमण से करता है . जैसे इसे हम इस सच्ची घटना से बहुत आसानी से समझ सकते है की हम संसार में अकेले नहीं है :

एक बार किसी गाँव में एक घर में सास, बहु और उनका छोटा सा परिवार रहता था . तो बहू को सास हमेशा किसी न किसी काम के लिए लड़ती रहती थी . इस कारण बहू बहुत परेशान रहने लग गयी थी . तो बहू ने उस सास को मारने की योजना बनाई की ना रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी . तो बहु एक वैध जी के पास गयी और सारी बात बताकर जहर की दवाई मांगी . वैध बहुत ही होशियार थे क्यों की वे परमात्मा की महिमा का निरंतर अभ्यास करते थे . वैध जी ने उस बहू को 30 दवा की पाउडर की पुड़िया बनाकर दे दी और कहा की रोज एक पुड़िया तुम्हारी सास के भोजन में मिला देना पर इस एक महीने में आप को अपनी सास को एक भी बार उल्टा जवाब मत देना , जो सास कहे उसको मानते रहना , सास के साथ ही भोजन करना , सास को तुम्हारे पर बिल्कुल भी शक नहीं होना चाहिए . सास के साथ  दोनों समय साथ बैठकर चाय पीना . दवा लेकर बहू घर आ गयी . अब बहू ने वैध जी के  बताये अनुसार व्यवहार करना शुरू कर दिया . सास बोलती बहू तुमने आज झाड़ू नहीं लगाई . बहू कहती अभी लगा देती हु माँ . सास कहती बहू तुमने सब्जी में नमक कम डाला है आज . अभी और लाती ही माँ . बहू रोज यह नाटक करने लग गयी थी क्यों की बहू सास को खुद के जीवन से हमेशा के लिए हटाना चाहती थी . इसके लालच में उसने सास से  झूठा प्रेम करने की द्रढ़ इच्छाशक्ति जगाई . रोज एक जहर की पुड़िया सास की सब्जी या चाय और कुछ में मिला देती थी . अब सास के इतना कहने पर भी बहू के व्यवहार को देखकर सास को बहू पर गुस्सा कम आने लग गया . आठ दस दिन बाद तो सास को भी बहू अच्छी लगने लग गयी थी . बीस  दिन बाद तो दोनों में इतना प्रेम हो गया की दोनों खाना भी एक दूसरे के बिना नहीं खाती थी . क्यों की प्रेम ब्रह्माण्ड की वह सबसे बड़ी शक्ति है जिसको यदि हम किसी गलत काम को करने के लिए भी  (द्रढ़ इच्छाशक्ति से  अपने स्वभाव को बदलने के लिए) काम में लेते है तो यह प्रेम हमारे उस गलत इरादे को ही प्रेम में रूपांतरित कर देता है . अब 25 दिन हो गए थे . अब बहू को अपनी सास के मरने के डर  की चिंता होने लग गयी थी . तो 27 दिन बाद वह भागी भागी वैध जी के पास गयी और बोली वैध जी साहब मेरे से तो बहुत बड़ा अनर्थ हो गया . वैध जी बोले क्या हुआ ?. मुझे तो अब पता लगा है की मेरी सास तो मुझे बहुत प्रेम करती है और वह तो मेरे बिना भोजन भी नहीं करती है और मै उनको पिछले 26 दिन से मारने के लिए जहर दे रही थी . और 30 दिन पुरे होते ही वह तो मर जाएगी . वैध जी साहब मेरी सास के प्राण बचा लो . मुझे आप ऐसी दवा दो जिससे मेरी सास के प्राण बच जाये . तो वैध जी साहब ने गुस्से(भीतर से प्रेम) में आकर बोला की पहले तो सास को मारने की दवा ले जाती हो और कहती थी की मेरी सास बहुत खराब है और अब कहती हो वह मर जाएगी उसके प्राण बचालो वह तो बहुत अच्छी है . वैध जी ने कहा अब मेरे पास ऐसी कोई अमृत घुटी नहीं है जिससे की मै आपकी सास के प्राण बचा सकू . बहू ने वैध जी से बहुत आग्रह किया पर वैध जी ने मना कर दिया तो वह जोर जोर से वही रोने लग गयी और कहने लगी की मेरी सास को बचा लो वैध जी साहब नहीं तो मै यही आत्मदाह कर लुंगी आप का नाम लेकर . अपने अंतकरण से वैध जी यह सारा नाटक देख रहे थे . तो अचानक वैध जी ने बोला बेटी इधर आओ . आपकी सास को कुछ भी नहीं होगा. मैंने जो आप को दवा दी थी वह केवल खट्टा मीठा चूरण था जिससे आप की सास का पूरा पेट अब साफ़ हो गया है और वह अब पहले से ज्यादा स्वस्थ हो गयी है . बेटी तू चिंता मत कर घर जाकर इसी तरह अपने स्वभाव को और निखार और अपने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित कर और उस पर पूरी ईमानदारी से चल . इसके लिए बेटी तू निरन्तर परमात्मा की महिमा का अभ्यास शुरू कर ताकि तेरे को हर पल आनंद की अनुभूति हो . इतना कहते ही वह वैध जी के चरणों में बैठ गयी और बोली आप मुझे क्षमा करदो वैध जी साहब . वैध जी साहब बोले बेटी मै ऐसे मामले रोज देखता हु . मुझे मालूम है इंसान क्यों परेशान रहता है . वह परमात्मा की महिमा का अभ्यास पूरी ईमानदारी से नहीं करता है इसलिए खुद को इस संसार में अकेला पाता है . जबकि कोई भी हम मेसे इस संसार में अकेला नहीं है . जैसे इस उपरोक्त उदाहरण में बहू अपनी सास को खुद से अलग मानती थी पर हमने पुरे वैज्ञानिक प्रमाण के साथ यह सिद्ध कर दिया की कोई भी व्यक्ति इस संसार में अकेला नहीं है . वैध जी साहब काफी समय से परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते थे . इसलिए जो व्यक्ति परमात्मा की महिमा का अभ्यास करता है वह लोगों को जोड़ता है तोड़ता नहीं . इसलिए जोड़ना अहिंसा है और तोडना हिंसा है . परमात्मा की महिमा हमे अहिंसा के मार्ग पर चलना सिखाती है . धन्यवाद जी .

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