भाग 5
भक्त : हे सर्व शक्तिमान अब आप मुझे कर्मयोगी के बारे में बतायें.
भगवान : वत्स
कर्मयोगी उस व्यक्ति को कहते है जो चाहे गृहस्थ मै हो या सन्यासी हो संसार में
रहते हुए अपने सभी कर्मो को करते हुए मुझसे जुड़ा हो . वह कर्म इतनी एकाग्रता के
साथ करता है की वह अपने हर कर्म के माध्यम से मेरे से जुड़ता जाता है . अर्थात धीरे
धीरे वह उसके माध्यम से किये जाने वाले सभी कर्मो को ही मेरी भक्ति मान लेता है .
इसको वत्स मै आपको इस उदाहरण से समझाता हु . जैसे एक व्यक्ति गृहस्थ मै है और उसको
आज के दिन के लिए अपने बच्चो के लिए भोजन की व्यवस्था करनी है और अभी इस समय उसके
पास नातो घर में अनाज है और ना ही भोजन के पैसे है . तो ऐसा कर्मयोगी बिना समय
गवाए और बिना इस बात की परवाह किये की आज मै जो भी काम करूँगा उसके बारे में समाज
के लोग क्या कहेंगे सीधा काम की तलाश में घर से निकल जायेगा और बाहर जो भी उसको
काम मिलेगा उसको वह पूरी लगन , मेहनत , और ईमानदारी के साथ करके
अपने बच्चो के लिए भोजन की व्यवस्था कर लेगा . पर यदि इसकी जगह कोई भक्ति योग की
साधना करने वाला व्यक्ति होता तो यह जरुरी नहीं है की वह काम की तलाश में घर से
बाहर जाता और अपने बच्चो के लिए भोजन की व्यवस्था करता .
भक्त : हे भगवान
जब ऐसा भक्ति योग वाला व्यक्ति कर्म ही
नहीं करेगा तो उसके बच्चो के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे होगी ?
भगवान : मै करता
हु वत्स मेरे ऐसे भक्त के लिए सभी इंतजाम . और वैसे मै आप को एक बात और समझाता हु
वत्स , इस संसार में कोई भी मनुष्य एक पल के लिए भी बिना कर्म किये
नहीं रह सकता है . जैसे स्वास लेना भी एक कर्म ही है पर वह इसके प्रति इतना जाग्रत
नहीं है इसलिए उसको लगता है की स्वास लेनी नहीं पड़ती है यह तो अपने आप चलती है .
पर हां यहां ध्यान देने योग्य एक बात अवश्य है वत्स .
भक्त : वह बात
क्या है भगवान :
भगवान : जब कोई
मनुष्य मुझ में पूर्ण रूप से एकाग्र हो जाये अर्थात भक्ति योग की चरम स्थिति में आ
जाये तो अब स्वास लेना उसकी मजबूरी नहीं है . वह स्वास पर भी विजय प्राप्त कर लेता
है . उसका स्वास पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है . वह चाहे तो स्वास ले या ना चाहे
तो स्वास ना ले . अर्थात वह मनुष्य स्वास के बंधन से मुक्त हो जाता है .
भक्त : हे
अंतर्यामी फिर ऐसे मनुष्य का शरीर जीवित कैसे रहता है ?
भगवान : मेरे ऐसे
भक्त के लिए स्वास और शरीर दोनों एक होते जाते है . अर्थात स्वास ही शरीर के रूप
में प्रकट रहता है . या ऐसे समझे की अनगिनित स्वासे इक्कठी होकर शरीर का रूप ले
लेती है . इसे और गहराई से मै बाद में समझाऊंगा वत्स .
भक्त : जी भगवान.
भगवान : वत्स अब मै तुम्हे आकर्षण के सिध्दांत (law of attraction) के बारे में और गहराई से बताने जा रहा हु . मेरी पूरी माया ही law of attraction से काम करती है . जब मै एक मनुष्य शरीर की रचना की बात करता हु तो कैसे एक माँ के गर्भ में शिशु का जन्म होता है और धीरे धीरे वह शिशु उस माँ के गर्भ में बड़ा होता जाता है और एक समय बाद उसके माँ के गर्भ से बाहर आने का समय आ जाता है . वत्स यह संसार मन ही है . मन ही सब कुछ करता है , मन ही शिशु के रूप में जन्म लेता है और मन ही फिर गर्भ में विकसित होता जाता है .
भक्त : हे अन्तर्यामी तो क्या मन ही शरीर है ?
भगवान : ठीक समझा वत्स आपने , व्यक्ति के मन में निरन्तर जो विचार पुरे मनोयोग से मन की गहराई तक पुरे विश्वास के साथ चलते है उन्ही विचारो का घनीभूत रूप है यह शरीर . जैसे मैंने पहले आप को बताया था एक उदाहरण के माध्यम से की मैंने पति पत्नी का किरदार निभाने के लिए 2 व्यक्तिओ की रचना करी और वे अब एक दूसरे को पति पत्नी मानकर अपना जीवन यापन कर रहे है . अब मैंने इच्छा प्रकट की , की इस विवाहित जोड़े के जीवन चक्र (life cycle ) को आगे विकसित करने के लिए इनके एक संतान होनी चाहिए .
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परमात्मा की महिमा में आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन है