अध्याय 1 में हम जानेंगे की किस प्रकार एक नया साधक इस योग का अभ्यास अपने गुरु के मार्गदर्शन में करता है ?. सबसे पहले इसमें गुरु अपने इन नए साधको के आचरण को परखता है , उनकी जीवन शैली को समझता है , वे माया में कितने गहरे उलझे है इसका पता करते है . उनकी मनोदशा को पड़ता है . इन साधको का खुद में कितना विश्वास है , परमात्मा में कितना विश्वास है , इनका ह्रदय कठोर है या मुलायम है . गुरु यह पता करता है की इन साधको की शरीर को लेकर क्या मान्यता है , वे संसार की भौतिक वस्तुओ को किस दृष्टि से देखते है , गुरु इनके स्वभाव का पता करता है . इस प्रकार जरुरी जानकारी पता करके गुरु इनको इनकी सुविधानुसार यह योगाभ्यास सिखाता है . जैसे कोई नया साधक बहुत ही ज्यादा चंचल है और हर काम बहुत तेजी में करता है तो गुरु जान जाता है की यह वायु दोष से पीड़ित है . तो फिर परमात्मा की महिमा के अभ्यास में ऐसे साधक को वे क्रियाये ही कराई जाती है जिनके करने से उसका यह दोष समता में आ जाये अर्थात योग के नाम पर उसको शुरू में शीर्षासन नहीं कराया जाता है . उसको तेज गति वाले दण्डबैठक नहीं कराये जाते है . ऐसे साधक को शुरू में उसकी रूचि अनुसार कोई काम भी करने को दिया जा सकता है ताकि उस काम के माध्यम से उसका मन , उसके शरीर के नजदीक आने लग जाये . और यदि गुरु खुद इस अभ्यास में पारंगत नहीं है और ऐसे साधक को जल्दी फायदा पहुंचाने के चक्कर में ऐसी क्रियाये कराने लग जाए की उसका वायु दोष बढ़ने लगे तो फिर साधक को यह योग करने में डर लगने लगता है और ऐसा साधक बाहर जाकर सब को कहने लगता है की यह योग सही नहीं है . इसलिए इस योगाभ्यास की पहली शर्त ही यह है की गुरु खुद इसमें 100 % पारंगत हो या फिर जितना प्रतिशत उसको यह अभ्यास आता है उतना ही सिखाये . नए साधको को पहले बैठना सिखाया जाता है . उनको गुरु केवल बैठने के लिए कहता है और फिर यह चेक करता है की ये साधक शांति से बैठे है या बार बार हिल रहे है , इधर उधर देख रहे है , या कुछ भी ऐसा कर रहे है जिससे गुरु तुरंत यह भाप लेता है की ये साधक अभी सहज स्थिति में नहीं है . और कोशिस भी नहीं कर रहे है की इनको खुद पर विश्वास होने लग जाए . ऐसे साधको के मन और शरीर में जो दूरी है उसको तीव्र गति से कम करने के लिए इनको कोई ऐसी चीज़ खिलाई जाती है जो इनको बहुत पसंद हो या फिर कोई ऐसा काम , या कोई दृश्य दिखाया जाता है जो इनको बहुत प्रिय हो . परमात्मा की महिमा के योगाभ्यास में कुल 1008 शारीरिक क्रियाये होती है .
नया साधक L K G / U K G का विध्यार्थी भी हो सकता है और बड़ी उम्र का पुरुष या महिला भी . यह अभ्यास इतना सरल और आनंददायक है की कोई भी इसे आसानी से कर सकता है पर सिखाने वाला गुरु और सिखने वाला शिष्य दोनों की इस अभ्यास में गहन रुचि होनी चाहिए . अध्याय 1 में पैदल चलना , कोई सामान्य काम करना , आपस में बात करना , ध्यान से सुनना , ध्यान से देखना , ध्यान से सूंघना और भी ऐसे तमाम प्रकार के कार्यो का अभ्यास कराया जाता है जिनको नए साधक ख़ुशी के साथ कर सके . क्यों की इस अभ्यास की दूसरी बड़ी शर्त यह है की अध्याय 1 के अभ्यास के दौरान शरीर और मन में चाहे कैसा भी परिवर्तन हो उसे पूर्ण मनोयोग से सच्ची ख़ुशी के साथ परमात्मा की अनुभूति मानकर ह्रदय से स्वीकार करना होता है . क्यों की कण कण में केवल परमात्मा का अस्तित्व है इसलिए ये परिवर्तन भी परमात्मा के अनुभव ही है . जब नया साधक सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर चलता है तो शुरू में बहुत अजीब सा लगता है और मन में तरह तरह के विचार उठने लगते है जैसे यह मै कैसे चल रहा हूँ , जो मुझे देख रहे है वे क्या सोचेंगे , ऐसे तो मै तेज चल ही नहीं सकता , कही में गिर नहीं जाऊँ , चक्कर आने जैसा लगने लगता है और भी कई प्रकार के परिवर्तन होने लगते है . पर यदि साधक दृढ़ संकल्प करले और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ इन सभी परिवर्तनों को बहुत ही ख़ुशी के साथ स्वीकार करले की येही परमात्मिक अनुभूति है तो ऐसा साधक अध्याय 2 के अभ्यास के लिए तैयार हो जाता है. वरना अभी और मेहनत करने की जरुरत होती है . इस प्रकार अध्याय 1 समाप्त हुआ . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .
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परमात्मा की महिमा में आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन है