Saturday, April 13, 2024

परमात्मा की महिमा का अभ्यास - अध्याय 3

अध्याय  3 में जिन साधकों ने अध्याय 2 में समझाये गये अभ्यास को सफलतापूर्वक सिद्द कर लिया है वे ही इस आगे के अभ्यास को बहुत ही सहजता और ख़ुशी के साथ सिखने में सफल होते है . और जो साधक बीच बीच में से अध्यायों में बताये गये अभ्यासों को करते है उनको आंशिक सफलता ही मिलती है . क्यों की हमें लगता है की यह तो मुझे आता है , वह भी मुझे आता है पर क्या वाकई में आता है इसका पता साधक को उस क्षण चलता है जब साधक समय पड़ने पर स्थिरप्रज्ञ रहता है , शांत रहता , प्रभु में लीन रहता है , खुश रहता है . अब बात करते है आगे के अभ्यास के बारे में . जब हम धीरे धीरे श्वास पर ध्यान देने लगते है जैसे कोई काम करते हुए श्वास को भी अनुभव कर रहे होते है , बैठे है तब भी श्वास की अनुभूति करते है , तेज दौड़ते है तब भी श्वास की गति को अनुभव करते है , भूमध्य(आज्ञाचक्र) को याद रखते हुए कोई काम करते है साथ ही श्वास को भी अनुभव कर रहे होते है , पैर कहा है , हाथ कहा है , सिर कहा है , कमर कहा है इस प्रकार शरीर के ज्यादा से ज्यादा हिस्सों को अनुभव करने लग जाते है , या कभी अचानक से कोई विचार आ जाये तो अब हम इससे चकित होने के बजाये इसको ध्यान से देखने में सक्षम हो जाते है , हमारा मन अपने आप बैठकर ध्यान करने के लिए राजी होने लगता है . क्यों की हमारा मन आदत के साथ काम करता है . एक बार कोई भी आदत मन को भा जाती है तो हमारा मन उसको बार बार दोहराता है(दोहराना मन की स्वभाविक प्रकृति है) . इसलिए इस अभ्यास में सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर हम यह पता करने में सफल होते जाते है की किस आदत को रूपांतरित करना है . यह अभ्यास हमें सभी प्रकार की गुलामी से मुक्त कर देता है . जैसे हमे ज्यादा खाने की आदत कई वर्षो से पड़ी हुयी है तो हम सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर इस आदत के बीज को खोज निकालते है और बहुत ही प्रेम और श्रद्धा , भक्ति से इसे हम जिस किसी रूप में भी हम चाहते है उसमे आसानी से बदल देते है . क्यों की सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होने का अर्थ है परमात्मा की छाया से जुड़ना और इस छाया को पकड़ते पकड़ते हम अपने परम पिता परमेश्वर (परमात्मा) को पकड़ने में 100 % सफल हो जाते है . जब हम मन को भूमध्य पर एकाग्र करके और श्वास को अनुभव करते हुए शांति से बैठकर भोजन करते है तो धीरे धीरे हमें पता लगने लगता है की मुझे कितना भोजन खाना है . हमें ज्यादा भोजन करने के बाद होनी वाली परेशानियों का अनुभव पहले से होने लगता है और परमात्मा स्वयं बताते है की मेरे बच्चे अब भोजन करने की क्रिया को विश्राम देवे आप के शरीर को स्थायी रूप से स्वस्थ रखने के लिए उचित और उपयुक्त आहार आप ने कर लिया है . जब साधक अपने भीतर से परमात्मा की यह आवाज सुनता है तो वह बहुत ही ख़ुशी के साथ आगे भोजन करने की क्रिया को रोक देता है और इसके बाद दिन भर स्फूर्ति महसूस करता है . ऐसा क्यों ? . क्यों की साधक ने जबरदस्ती अपने मन को मारकर ज्यादा भोजन करने की क्रिया को नहीं रोका है बल्कि अपने मन को जगाया है की हे मेरे प्रिये मन आप हमारे परम पिता की आवाज को सुने ,देखो वे क्या कह रहे है ?. जब बात परमात्मा की आ जाती है तो मन की हिम्मत नहीं की वह अपने मालिक की बात ना सुने .  मन अपने मालिक (परमात्मा) की बात तभी सुनता है जब हम (चेतना) मन पर निगरानी रखते है अर्थात मन का जो घनीभूत रूप शरीर है उसमे सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर कोई भी क्रिया करते है तब हमारा मन हमारी बात मानने लग जाता है . फिर तो यह मन हमारी ऐसी ऐसी मदद करता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते . यह मन ही हमारे शरीर का सॉफ्टवेयर है , मन ही इस शरीर का निर्माता है , मन ही भोजन करता है , मन ही पानी पीता है , मन ही सभी सुख सुविधाएं भोगता है अर्थात मन ही संसार है , मन ही माया है , मन ही हमें भगवान से मिलाता है . अर्थात मन को पकड़ लो परमात्मा पकड़ में आ जायँगे . मन को पकड़ने की सर्वोच्च एवं सबसे सरल विधि है सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होना . क्यों की सिर से लेकर पाँव तक की यह जो रचना है जिसे संसारी भाषा में शरीर कहते है यह मन का ही ठोस रूप है और सूक्ष्म रूप में हमारा मन पुरे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है . अब पुरे ब्रह्माण्ड में तो आसानी से एकाग्र हुआ नहीं जा सकता है . क्यों की जब हम हमारे शरीर के बाहर किसी दूसरी वस्तु में एकाग्र होते है तो उस वस्तु में एकाग्र होना इसलिए कठीन होता है की वह वस्तु दृश्य रूप में हर पल हमारे साथ नहीं रहती है . इसलिए जितनी देर तक हम उस वस्तु में एकाग्र होते है उससे हमारा मन कुछ समय के लिए तो एकाग्र हो जाता है पर जैसे ही कोई तीव्र विचार आता है हमारी एकाग्रता भंग हो जाती है अर्थात हमारे शरीर में जो परिवर्तन होता है उसको हम ख़ुशी के साथ स्वीकार नहीं कर पाते है. क्यों की हमने शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों के प्रति जाग्रत होने का तो अभ्यास किया ही नहीं हमने तो उस बाहरी वस्तु को देखकर या मन में कल्पना करके हमारा ध्यान उस वस्तु पर लगाते है या यू कहे लगातार हमारा मन उस वस्तु पर ही रहे यह विचार करते है . पर इस विधि की आंशिक सफलता का कारण यह है वस्तु और शरीर दोनों ही हर पल परिवर्तित हो रहे है . जब हम हमारे पास वाली वस्तु(शरीर) में होने वाले परिवर्तनों को ही ठीक ठीक समझने में कठिनाई का अनुभव करते है तो जो वस्तु हमारे शरीर से दूर है या हमारी कल्पना में है उसमे होने वाले परिवर्तनों को समझने में तो और भी ज्यादा कठिनाई अनुभव करेंगे . इसलिए परमात्मा की महिमा का अभ्यास कहता है की सबसे बड़ी भक्ति सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होते हुए जीवन की सभी क्रियाये करे तो जीवन में हर पल आनंद की अनुभूति होना शुरू हो जाती है . यह है परमात्मा की महिमा के अभ्यास का चमत्कार . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .

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