जब हम परमात्मा की महिमा का अभ्यास करते है अर्थात सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्रता बढ़ाते हुए जीवन की सभी क्रियाये करते है तो हमे हमारे शरीर की भीतरी गंध , सुगंध का अनुभव होने लगता है . साथ ही सर्वव्यापकता का भी अनुभव होने लगता है . हमारा पेट ख़राब है तो हमे पेट की भीतर की सड़न की गंध आने लगती है , या यदि शरीर में कही भी कोई गाँठ है तो उसके भीतर जो पस पड़ गया उसकी भी गंध आने लगती है , हमारे खून , चमड़ा , श्वासो , मांस , हड्डियों इत्यादि की गंध का हमे अनुभव होने लगता है . जब हम इस गंध से घृणा करते है तो इसके स्त्रोत में विकृति आने लगती है क्यों की हमने माया का अपमान किया है . वह प्रभु की ही गंध है और हमने इसे दुर्गन्ध मान लिया है. अर्थात जो है नहीं वह मान लिया इसलिए इस शरीर रचना के अस्तित्व को खतरा होने लगता है . इसीलिए तो परमात्मा कहते है की आप जैसे भी हो उसे ही पहले स्वीकार करो और बिना शर्त प्रेम करो . तभी भीतर से रूपांतरण शुरू होगा . इसीलिए तो शरीर में जो हमे कड़ापन , ढीलापन , थकान , आलस , या कुछ भी परिवर्तन होता है उसे बहुत ही प्रेम से परमात्मिक अनुभूति के रूप में स्वीकार करना बहुत जरुरी है यदि हमे शारीरिक बीमारियों से हमेशा के लिए मुक्ति चाहिए तो . ठीक इसी प्रकार हमे बाहरी लोगों से , और अन्य सभी जीवों से बिना शर्त प्रेम करना बहुत जरुरी है चाहे उन्होंने हमे किसी भी तरीके से परेशान किया हो या कितना भी नुक्सान हमे पहुंचाया हो . क्यों की उन सभी के रूप में परमात्मा स्वयं प्रकट हो रहे है . पर माया की शक्ति के कारण हमे वे सब अलग दिखाए पड़ते है और हम उनको अलग मानकर सत्य से विमुख हो जाते है और प्रेम करने की शक्ति खो देते है . क्यों की हम माया को सच मानकर प्रभु से विमुख हो गए और यही सबसे बड़ा कारण है की हमे इन कष्टों का सामना करना पड़ता है . आत्म ज्ञान का सही अर्थ यह होता है की हमने माया का भी सम्मान करना सीखा और ब्रह्मा के साथ भी रहे . बिना इस अभ्यास के हम बिना शर्त प्रेम करने में आंशिक रूप से तो सफल हो सकते है पर पूर्ण सफलता नहीं मिलती है . और शरीर को हम कष्टों में डालकर कहने लगते है की संसार में कोई किसी का नहीं है , शरीर नश्वर है , संसार नश्वर है , यहां दुःख ही दुःख है . यह सब बाते हम बार बार बोलकर हमारे मन में गहरे तलो पर जमा कर लेते है जिसे अवचेतन मन कहते है . फिर यही बाते धीरे धीरे पोषित होते हुए संस्कारो में बदल जाती है और सघन रूप लेने लगती है जिसे आम भाषा में शरीर कहते है . इस प्रकार शरीर रुपी इन संस्कारो को अभ्यास के माध्यम से दिव्य शरीर में बदला जाता है जो बहुत ही मजबूत होता है और प्रकृति से अप्रभावित रहता है . पर फिर भी यदि हमारी इच्छा वर्तमान शरीर को दिव्य शरीर में बदलने की नहीं होकर केवल बीमारियों से मुक्ति प्राप्त करने की है और बिना रोगों के हम सामान्य जीवन जीना चाहते है तब भी यह अभ्यास करना बहुत जरुरी है . बिना शर्त प्रेम करना कोई एक दिन मे नहीं आता है पर यदि हम ठान ले तो फिर यह असंभव नहीं है . वैसे तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है यदि उसे परमात्मा अर्थात खुद पर 100 % विश्वास है तो . क्यों की मनुष्य जीवित ही विश्वास के कारण है . अर्थात मनुष्य को यह विश्वास है की वह जिन्दा है , उसकी श्वास चल रही है , उसे उसका शरीर अनुभव में आ रहा है , उसे प्रकृति का अहसास हो रहा है , उसको माया के ऊपर विश्वास है . यहां बहुत ही ध्यान देने योग्य बात यह है की हमने कहा है की मनुष्य को माया पर विश्वास है इसलिए वह जिन्दा है . इसका अर्थ यह है की माया के पीछे जो सत्य छिपा है उस पर विश्वास है . जैसे हम घर परिवार में कहते है की हम तो ईश्वर की कठपुतली है अर्थात हमारा अलग से कोई अस्तित्व नहीं है . इसलिए सच में ना तो हमारा यहां कोई दुश्मन है और ना ही मित्र है बल्कि हम सब एक ही ईश्वर की संतान है और हमारे बीच केवल प्रेम का रिश्ता है . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .
केवल परमात्मा का अस्तित्व है. परमात्मा सर्वव्यापी है परमात्मा कण कण में विराजमान है. परमात्मा का हर गुण अनंत है जैसे परमात्मा का एक गुण यह भी है की वे एक से अनेक रूपों में प्रकट होते है. निराकार से साकार रूप में प्रकट होना है : सृष्टि की उत्पति अर्थात निराकार से साकार रूप में प्रकट होना ,असंख्य जीव अर्थात एक से अनेक होने का गुण. मानव का लक्ष्य केवल परमात्मा को जानना है , खुद के स्वरूप को जानना है , परमात्मा और हमारे बीच दूरी शून्य है इसका अनुभव करना है , हर पल खुश कैसे रहे इसका अभ्यास करना है
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परमात्मा की महिमा में आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन है