Sunday, June 2, 2024

आत्मा से मन अलग होते ही आप की दुनिया ख़त्म हो जाती है

 मेरे प्रिये साथियो मै आज आप को आप का इस संसार से जो सम्बन्ध है उसके विषय में बताने जा रहा हु . आप एक शुद्ध आत्मा हो , आप अजर अमर अविनाशी हो . जब आप के परम पिता आप के लिए अपनी माया से मन को प्रकट करते है तो आप को यह संसार दिखने लगता है . अर्थात आप की आत्मा ही ईश्वर के माध्यम से आप को जो मन दिया गया है उससे इस संसार रुपी स्वप्न की यात्रा करती है . जिस जिस क्षण आप आत्मस्वभाव में रहते है तब तब आप को यह संसार साफ़ साफ़ दिखाई पड़ता है अर्थात संसार में आप को यात्रा करते हुए कोई भी डर नहीं लगता है . ना आप संसार से विरक्ति चाहते है . क्यों की उन क्षणों में आप ईश्वर के साथ एकता का अनुभव कर रहे होते है . परन्तु जब माया मन के माध्यम से अपना प्रभाव दिखाना शुरू करती है तो आप की यात्रा की गति तेज हो जाती है . अर्थात अब आप को संसार की स्वप्न रुपी वस्तुओं और खुद के बीच में एक दूरी का अनुभव होने लगता है . माया के प्रभाव के कारण अब आप अपने आप को जो पहले आत्मस्वभाव में यात्रा कर रहे थे , शरीर मानने लगते हो . माया आप को इस तरीके से कैद करती है की मन के माध्यम से आप की आत्मा के चारो तरफ एक शरीर रुपी घेरा बना लेती है . अर्थात माया की शक्ति के कारण आप का संपर्क ईश्वर से कम होता जाता है और इस संसार रुपी छाया से घनिष्ठ होता जाता है . और यह माया की शक्ति आप के पास ही होती है . परमात्मा खुद आप की आत्मा को यह यात्रा करने की शक्ति स्वतंत्र रूप से दे देते है पर इसके साथ कुछ विशिष्ठ नियम भी लागू कर देते है . इसे हम कर्म करने की शक्ति भी कहते है . जो लगातार परमात्मा से हमे मिलती है . जब आत्मा इस शक्ति का अनुभव करती है तो उसमे एक अहंकार भाव यात्रा करते हुए इस प्रकार से पैदा होता है की आप को लगने लगता है की इस संसार में मै तो आसानी से यात्रा कर सकता हु . अर्थात व्यक्ति माया रुपी मन के चंगुल में फसकर यह सोचने लगता है की मै संसार का बादशाह हु . और मै कुछ भी कर सकता हु . पर अचानक जैसे ही ऐसा व्यक्ति विशिष्ठ नियमो को तोड़ता है तो उसको यह यात्रा करने से डर लगने लगता है और वह अपने पिता को याद करता है . तब हमारे परमपिता इस व्यक्ति को कहते है आओ आओ बच्चा किधर जा रहे हो , आप के ही दूसरे मित्रों(भाई , बहीन, पशु -पक्षी , पेड़ पौधे , जल , पृथ्वी इत्यादि ) को आप खुद से अलग कर रहे हो . अर्थात जब ऐसे व्यक्ति के मन में यह विचार आने लगते है की मै अलग हु और दूसरे जीव जंतु अलग है तो इस दूरी बढ़ाने वाले विचार के कारण प्रकृति में असंतुलन आने लगता है और प्रकृति के इस खेल को जारी रखने के लिए परमात्मा माया को आदेश देते है की अपना संतुलन कैसे भी करके बनाये . अर्थात हमारे परम पिता ही पहले माया को यह दूरी बढ़ाने वाला विचार इस अमुक व्यक्ति के मन में डालने के लिए कहते है और फिर परमात्मा ही माया को अपने खेल का संतुलन बनाये रखने के लिए इस व्यक्ति के मन में डर , चिंता , और गलती का अहसास कराने के विचार डालते है . और ऐसा लुका छुपी का खेल तब तक चलता रहता है जब तक यह व्यक्ति हताश , निराश , लाचार , और असहाय महसूस नहीं कर लेता है . जब यह व्यक्ति इस खेल में थक हार के बैठ जाता है अर्थात अपने मन की ऊपरी सतह की सारी शक्ति खर्च कर देता है और इसे कुछ भी नहीं सूझता है तो यह धीरे धीरे खुद की तरफ लौटने लगता है अर्थात बाहर की उठापटक बंद होते ही यह भूमध्य की तरफ लोट आता है यानी प्रभु का इसे अहसास होने लगता है की इतने समय से जो मै , बकरी की तरह मै मै मै कर रहा था वह सब झूठ था . यह सब तो मेरे इस शरीर के माध्यम से कोई अदृश्य शक्ति कर रही थी . जो स्वयं परमात्मा है . अर्थात माया पूरी तरह से परमात्मा से ही नियंत्रित है . या यु कहे ब्रह्मांडीय गतिविधियां प्रभु की इच्छा से ही चलती है . जब यह व्यक्ति भूमध्य पर ध्यान करता है और सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्रता का अभ्यास करता है तो यह अपने ऊपर चढ़े इस माया के परदे को हटाने में कामयाब हो जाता है . और फिर यही व्यक्ति माया के साथ जीने में भी ख़ुशी महसूस करता है . क्यों की अब यह जाग्रत होकर यह खेल खेल रहा है . इसका मन इसके खुद के नियंत्रण में आ चूका है . अब इस व्यक्ति को इन्द्रियाँ भटका नहीं सकती क्यों की अब इसने प्रभु से एकता करली है . और अपने परम पिता से प्राप्त  निर्देशों के आधार पर यह व्यक्ति अपने लक्ष्य तक पहुँचता है . अर्थात इस व्यक्ति को पता चल जाता है की मेरा लक्ष्य क्या है और मै किस काम के लिए यहां आया हु और मेरा यह काम कैसे पूरा होगा . और कब मुझे प्रभु के पास वापस लौटना है . विचार माया है और परमात्मा की छाया है और सब जगह है . इसलिए जब हम सिर से लेकर पाँव तक में एकाग्र होकर अपने जीवन की यात्रा में आगे बढ़ते है तो हम इन्द्रियों से क्या देखे और क्या नहीं इसका ज्ञान होने लगता है . फिर हम माया को समझने लगते है , मन को समझने लगते है और अंत में हमे पता चलता है की यह सब धोखे थे केवल परमात्मा का ही अस्तित्व है . माया परमात्मा की छाया है . इस अभ्यास से हम विचार को समझने में सफल होने लगते है और विचार पर कैसे ध्यान की शक्ति को लगाकर विचार को मूर्त रूप दे सकते है . अर्थात किसी भी विचार को दृश्य जगत में लाने की कला हम सिख जाते है . जैसे शरीर में अंगो को फिर से नया कैसे करे , नया शरीर कैसे निर्मित करे , बाहर की वस्तुओं को कैसे प्राप्त करे . बीमारी के परमाणुओं को स्वस्थ परमाणुओं में कैसे रूपांतरित करे ऐसे तमाम प्रकार के रचनात्मक कार्य करने में हम सक्षम हो जाते है पर ईश्वर्य नियमों के अंतर्गत . पर ऐसा व्यक्ति जब केवल अपने परमात्मा से ही जुड़ता है और मन की इच्छाओ को पूरी नहीं करता है अर्थात माया और ब्रह्म साथ साथ रहने के नियम का पालन नहीं करता है (शरीर के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जरुरी चीजों का भोग नहीं करता है ) तो ऐसे व्यक्ति का मन मिटने लगता है और उसकी दुनिया ख़त्म होने लगती है और एक समय बाद पूरी तरह उसकी दुनिया ख़त्म हो जाती है . अर्थात ऐसा व्यक्ति निराकार परमात्मा में विलीन हो जाता है . इसलिए हर व्यक्ति का अपना एक अलग संसार है . आप जैसा संसार चाहते हो वैसा संसार आप रच सकते हो . इसके लिए परमात्मा की महिमा का अभ्यास अनिवार्य है . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .

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