मै आपको इसे एक उदाहरण से समझा रहा हु की बिना शर्त प्रेम करना क्यों जरुरी है . खुद को जानने का अर्थ है आप का पेट कैसे बना है , आप का सिर कैसे बना है , क्या आप शरीर तक ही सिमित है या आपका स्वरुप अनंत तक फैला है . अर्थात खुद को जानने के बाद फिर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है . आप के शरीर और मन के भीतर जो निरंतर परिवर्तन हो रहे है आप उन्हें पसंद ना पसंद करते है पर फिर भी आप को उन परिवर्तनों के साथ ही रहना पड़ता है . जैसे आज आप ने स्वाद के वशीभूत होकर कुछ ऐसा खा लिया की अब आप के पेट में जोर जोर से भयंकर दर्द हो रहा है . तो क्या आप दर्द का इलाज करवायेंगे या पेट को काटकर बाहर फेंक देंगे . अवश्य आप इलाज ही करवायेंगे . और जिन्होंने आज तक रोग से घृणा भाव रखके शरीर के किसी भी भाग को ऑपरेशन से कटवाकर बाहर निकलवाया है उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुयी है(अगर हुयी है तो उन्होंने पहले अपनी इस गलती को ठीक किया है) . ठीक इसी प्रकार अब हम शत्रु को जानते है की हम किसी व्यक्ति को शत्रु क्यों मानते है . जिस प्रकार गलत भोजन से पेट दर्द हुआ है ठीक इसी प्रकार शत्रु को हमने कभी ना कभी कुछ ऐसा कहा है जो अप्राकृतिक है , या मन में उसके प्रति निंदा भाव , चुगली , बुराई , ईर्ष्या इत्यादि भाव रखे है जो समय पाकर अब शत्रु के रूप में आकर हमारे सामने प्रकट हो रहे है . जैसे आप पिज़्ज़ा आर्डर करते है तो पिज़्ज़ा ही आता है और आप पिज़्ज़ा देखकर खुश हो जाते है . अर्थात पिज़्ज़े से आप के शरीर में सुखद अनुभूति होती है . और पिज़्ज़ा खाने के बाद यदि दुखद अनुभूति होती है तब भी आप इसे सहन करने को विवश हो जाते है . क्यों की शरीर के भीतर की अनुभूति को आप शरीर से अलग करके बाहर नहीं फेंक सकते है . और जब आप अपनी आँखों से किसी व्यक्ति को देखते है जिसे आप शत्रु मानते है तो अब आप को दुखद अनुभूति होती है. परन्तु अब आप शत्रु को अपनी आँखों के सामने से हटाना चाहते है . इसके लिए यदि शत्रु आप से ज्यादा बलवान है तो आप खुद किसी स्थान पर छिप जाते है या शत्रु आप से दुर्बल है तो आप बलपूर्वक उसको अपनी आँखों के सामने से भगा देते है . अर्थात आप वह काम करते है जिस में आप का वश चलता हो . आप यह नहीं सोचते है की मै जो निर्णय ले रहा हूँ या ले रही हूँ वह सत्य और अहिंसा के मार्ग पर खरा उतरता है या नहीं . अब आप ही सोचिए की किसी को भी हटाकर आप सम भाव में कैसे रह सकते है . अर्थात स्थिरप्रज्ञ कैसे रह सकते है . समता भाव को विकसित करना ही तो खुद को जानने के लिए किया गया कर्म है . अर्थात आप के भीतर सुर और असुर दोनों भाव है . पर आप असुर भाव को हटाना चाहते है और सुर भाव को रखना चाहते है तो आप का अस्तित्व खतरे में पड़ने लगता है . यह वैसे ही जैसे आप स्वादिष्ट भोजन की खुशबु को तो पसंद करते है पर जब आप इसे खाते है और इसके पचने के बाद जो आप मल त्याग करते है उसकी बदबू को ना पसंद करते है . यदि आप अपने शरीर की गंध से ही घृणा करेंगे तो आप के शरीर में से ठोस तत्व विदा होने लगेगा . अर्थात दांत , हड्डिया इत्यादि कमजोर होने लगेंगे क्यों की आप के शरीर का आधार मल ही है . आयुर्वेद भी कहता है की मल है तो बल है . यदि आप के शरीर से पूरा मल निकाल दिया जाए तो आप खड़े भी नहीं हो पायेंगे. ठीक इसी प्रकार आप के माध्यम से किये गए गलत कर्म के कारण आप ने जो शत्रु फल के रूप में पैदा कर लिया है , अब आप उस फल को स्वीकार नहीं करके आप प्रकृति के विरुद्ध एक नया कर्म संस्कार बना रहे है . अर्थात जो कर्म आप ने किया है उसका फल आपको भोगना ही पड़ता है . पर यहां सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य बात यह है की आप इस फल को किस प्रकार भोगते है . आप या तो लाचार होकर इसे भोगेंगे तो आप मिटने लगेंगे . या आप स्थिरप्रज्ञ होकर , पूर्ण निर्मल भाव के साथ , पूरी श्रद्धा , भक्ति , प्रेम के साथ इसे सहन कर लेते है तो यह फल ख़ुशी में बदल जाता है और आप इस गलत कर्म से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते है . अर्थात आप ने असुर भाव को खुद का हिस्सा स्वीकार कर लिया है . इसलिए आप यह समझे की संसार में आप का कोई भी शत्रु नहीं है बल्कि आप ही के माध्यम से किये गए गलत कर्मो के फल है . इसलिए अपने स्वरुप के दर्शन करने के लिए आप को अपने संचित कर्मो की भट्टी में तपना पड़ेगा ही पड़ेगा . इसका और कोई अन्य मार्ग नहीं है . बस आप परमात्मा के नियमानुसार इस तप के रूप का चयन अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर सकते है . तप का स्वरुप किसी भी युग में नहीं बदलता है . रूप और स्वरुप में यह फर्क है की रूप शरीर का होता है और स्वरुप , रूप का मुख्य स्त्रोत होता है . इसलिए यदि आप मुख्य स्त्रोत को जानना चाहते है जिससे आप के इस भौतिक शरीर का निर्माण हुआ है तो आप को अपने इस शत्रु रुपी रूप से भी मित्र रुपी रूप जैसा बिना शर्त प्रेम करना ही पड़ेगा . आप किसी को मिटाकर , भगाकर, डराकर, चमकाकर, झूठ बोलकर , सत्य और अहिंसा का मार्ग छोड़कर , प्रकृति के विरुद्ध जाकर आत्म ज्ञान(स्वरुप दर्शन , खुद को जानना , प्रभु से एकता स्थापित करना , हरपल खुश रहना) को प्राप्त नहीं कर सकते है . इसलिए मै कहता हूँ की यदि आप क्रियायोग का अभ्यास करते है तो एक समय आएगा जब आप हरपल खुश रहने लगेंगे . आप से विनम्र विनती है की यदि आप को प्रभु का यह ज्ञान लाभप्रद अनुभव हुआ है तो आप की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है की आप इस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों को भेजकर अपने इस सेवा मिशन में अमूल्य योगदान देकर परमधन की प्राप्ति करे . ताकि हमारे पुरे संसार में किसी भी पीड़ित मित्र की हम मदद कर सके . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .
केवल परमात्मा का अस्तित्व है. परमात्मा सर्वव्यापी है परमात्मा कण कण में विराजमान है. परमात्मा का हर गुण अनंत है जैसे परमात्मा का एक गुण यह भी है की वे एक से अनेक रूपों में प्रकट होते है. निराकार से साकार रूप में प्रकट होना है : सृष्टि की उत्पति अर्थात निराकार से साकार रूप में प्रकट होना ,असंख्य जीव अर्थात एक से अनेक होने का गुण. मानव का लक्ष्य केवल परमात्मा को जानना है , खुद के स्वरूप को जानना है , परमात्मा और हमारे बीच दूरी शून्य है इसका अनुभव करना है , हर पल खुश कैसे रहे इसका अभ्यास करना है
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परमात्मा की महिमा में आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन है