आज मै आपको ऑनलाइन माध्यम से जितना अभ्यास के बारे में समझा सकता हूँ उतना समझाने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि मेरे जो मित्र मुझसे अभी संपर्क नहीं कर पा रहे है उनको भी परमात्मा से जुड़ने में मदद मिल सके .
सबसे पहले अपने आप को उस स्थिति में लेकर आये जिसमे आने पर
आप को इस लेख को पढ़ने में रूचि आने लग जाये . अब आप पहले इस लेख को पढ़ते हुए अपने
मन को भूमध्य पर लाये अर्थात यह पता करे की आँखों के बीच का वह क्षेत्र जहा
महिलाएँ बिंदी लगाती है और पुरुष टीका लगाते है . ललाट के इस क्षेत्र को आज्ञा
चक्र , भूमध्य , तीसरी आँख , दिव्य इच्छा
शक्ति का केंद्र , शिव नेत्र ऐसे
अनेक नामों से देश विदेश में जाना जाता है . जब आप यह क्रिया या कोई अन्य कार्य कर
रहे है या किसी शांत स्थान पर बैठे है तो इस स्थान पर मन को एकाग्र करे और फिर इस
जगह पर ध्यान करे . आप आँखे बंद भी कर सकते है या बंद करने में अभी असहज महसूस
होता है तो फिर आँखों को आंशिक रूप से खोले , गर्दन सीधी हो , कमर सीधी हो , एकदम सामने देखते हुए धीरे धीरे दोनों आँखों से भूमध्य को
देखने का प्रयास करे . फिर अपने मन को धीरे धीरे इसी क्षेत्र के साथ साथ श्वास पर
भी लाने का अभ्यास करे . आप को सिर्फ आती जाती श्वास को अनुभव करना है . यह
कार्य इतनी सहजता और प्रसन्नता से करना है की आप यह मान ले की सबकुछ यही है .
अर्थात इस क्रिया के दौरान आप पहले यह विश्वास करे की परमात्मा खुद आप के रूप में
यह क्रिया कर रहे है ताकि कोई भी अन्य विचार आपको लुभा नहीं सके . लगातार भूमध्य
पर एकाग्र होकर ध्यान करने से वहाँ के सोये हुए केंद्र जगने लगते है , अपने आप ही आप का
ध्यान सधने लगता है और आँखे बंद होने लगती हैं . अगर अभी आँखे बंद नहीं होती है तब
भी कोई बात नहीं . आपको इस क्षेत्र में प्रकाश दिखाई देने लगेगा .
अब आगे धीरे धीरे अपने मन का विस्तार करते हुए मन को सिर के
पीछे वाले भाग पर लेकर आने का प्रयास करे . इस क्षेत्र को कूटस्थ , मेडुला , प्रभु का मुख , प्रेम का केंद्र , परमात्मा की वेदी
ऐसे अनेक नामों से जाना जाता है . यही वह क्षेत्र है जहाँ से परमात्मा की शक्ति
अर्थात प्राणशक्ति , जीवन शक्ति , परमधन सबसे
ज्यादा मात्रा में प्रवेश करके सबसे पहले आज्ञा चक्र का निर्माण करती है फिर हमारे
दिमाग का (भौतिक दिमाग) निर्माण करती है और फिर रीढ़ की हड्डी का निर्माण करती है
और फिर रीढ़ से जाने वाली सभी शाखाओं का निर्माण करती है . अर्थात हमारा शरीर एक
वटवृक्ष की भाति बना हुआ है जिसमे सिर के रूप में जड़े ऊपर और शाखाएँ नीचे की तरफ
होती है . वटवृक्ष में जड़े जमीन में और शाखाएँ ऊपर और हर शाखा में जड़े होती है .
तभी तो वटवृक्ष में बुढ़ापा नहीं आता है . और वैसे भी बुढ़ापे का सही अर्थ वृहद होना
अर्थात ज्ञान की दिशा में आगे बढ़ना होता है ना की बूढ़ा होकर मर जाना . यदि हम भी क्रियायोग का पूर्ण मनोयोग से अभ्यास करे तो
बुढ़ापे पर विजय प्राप्त कर सकते है . क्यों की क्रियायोग प्राण से जुड़ने की विद्या
है . और जब हम प्राण को ही शरीर रूप में बदलने में सफल हो जाते है तो फिर यह जड़
शरीर रहता ही नहीं है . अभी हमारे इस शरीर में जड़ता अधिक होने के कारण ही तो हमे
सभी प्रकार के डर लगते है . जब हम धीरे धीरे शरीर की सिर से लेकर पाँव तक की एक एक
क्रिया में एकाग्र होकर वहाँ ध्यान करने लगते है तो उस अमुक क्षेत्र की जड़ता
समाप्त होने लगती है और हमे साफ़ साफ़ अनुभव होने लगता है की हमारा शरीर प्रकाश से
बना हुआ है .
हमारे शरीर में जड़ता अर्थात आलस्य क्यों आता है ?
जड़ता या आलस्य के अनेक कारण होते है . जैसे मृत भोजन करना अर्थात
जिसमे पोषक तत्व ना के बराबर हो . जैसे पुराने पैक्ड खाद्य पदार्थ , कई प्रकार के पेय
पदार्थ , किसी जीव की
हत्या करके ऐसे दुर्बल जीव का भक्षण करना , बार बार पकाया हुआ भोजन , मिलावटी भोजन , रसायनो युक्त भोजन , उदासी या
नकारात्मक भावनाओं से बनाया हुआ भोजन हमेशा शरीर में जड़ता को बढ़ाता है जिससे शरीर
के माध्यम से कोई भी काम करने में हमे थकान , घबराहट , बेचैनी , निद्रा , आलस्य , डर ,
असहजता जैसे अनेक
परिवर्तनों का सामना करना पड़ता है .
जड़ता के अन्य कारण हमारे संचित कर्म , हमारे
आस पास का वातावरण , हमारी खुद की सोच , हमारी
साइकोलॉजी , प्रभु में विश्वास की कमी , अधिक
लोभ लालच , अत्यधिक कामनाये , विलासिता
पूर्ण जीवन , अत्यधिक स्वादिष्ट पकवानो की आदत
, अत्यधिक
अरुचिकर खाद्य पदार्थो की आदत , जीवन के
लक्ष्य की अस्पष्टता , संसार से मोहभंग होना , शरीर
से घृणा करना , खुद को स्वीकार नहीं करना , जो
है उसमे राजी नहीं होना , सोचने समझने की शक्ति खो देना , कोई
पुराना सदमा , किसी चीज से अत्यधिक लगाव रखना
ऐसे अनेक कारण है जिनसे हमारे शरीर में जड़ता और आलस्य का विस्तार होता है और
हम परमात्मा से धीरे धीरे दूर होते चले जाते है और अंत में हमारा ही हम खुद
सर्वनाश कर लेते है .
इसलिए क्रियायोग अभ्यास में हर समय अपनी श्वास को याद रखे , पैरो में क्या
क्या परिवर्तन हो रहे है उनको प्रेम करे , पेट में क्या हो रहा है उसे महसूस करे . ज्यादा से ज्यादा
समय अपनी रीढ़ को अनुभव करे , सामने वाले व्यक्ति से उसके भूमध्य और खुद के भूमध्य को
ध्यान में रखकर बात करे . इन सभी क्रियाओं से योग करने में बहुत ही धैर्य की
आवश्यकता होती है . आप को अपने धैर्य को अनंत करना है क्रियायोग का अभ्यास . जब आप
किसी एक स्थिति में अभ्यास करते हुए असहज महसूस करने लग जाए अर्थात अब शरीर में
परिवर्तन सहन नहीं कर पा रहे है तो अपनी स्थिति को बदल दे .
चलते हुए क्रियायोग का अभ्यास कैसे करे ?
जब आप चल रहे हो तो अनुभव करे पैर कैसे उठ रहे है और कैसे
जमीन पर रखे जा रहे है और इस दौरान आप को पैरो में क्या क्या परिवर्तन महसूस हो
रहे है . इन सभी परिवर्तनों को आप परमात्मिक अनुभूति कहकर बहुत ही प्रसन्नता से
स्वीकार करने की आदत विकसित करे . मै इस अभ्यास को आगे के लेखो में और गहराई से
समझाऊंगा .
प्रभु का यह लेख यदि आप को फायदा पहुँचाता है तो
आप की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है की आप इस लेख को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक
भेजकर हमारे इस सेवा मिशन में अपना अमूल्य योगदान देकर प्रभु के श्री चरणों में
अपना स्थान सुनश्चित करे . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .
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परमात्मा की महिमा में आप सभी का हार्दिक अभिनन्दन है