क्यों की हर वस्तु का अस्तित्व उसके सूक्ष्मतम कणों के बीच लगने वाले आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों के कारण होता है . यदि पदार्थ के कणों के मध्य किसी भी प्रकार का बल कार्य नहीं करेगा तो फिर पदार्थ अपना अस्तित्व खो देगा और निराकार में रूपांतरित हो जायेगा . यह ‘बल’ ही कारण जगत है .
इसलिए जब निराकार शक्ति अपनी ज्ञान रुपी प्रकृति के कारण स्पंदित होती है तो अनेक प्रकार के बलों का सृजन करती है . अर्थात यह खुद निराकार शक्ति का गुण होता है की किसी भी रचना को साकार रूप देने के लिए खुद ही आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों का रूप धारण कर लेती है .
हम कई बार बोलचाल की भाषा में कहते है की आज आपने यह कोनसा रूप धारण कर रखा है . में तो समझता था आप को कभी गुस्सा आता ही नहीं है .
अर्थात जब निराकार शक्ति अपने किसी भी एक अदृश्य कण को स्पंदित करती है तो इसके स्पंदन से दूसरे अदृश्य कण हिलने के कारण स्पंदित होने लगते है और फिर धीरे धीरे इन स्पंदनो का खेल शुरू हो जाता है .
और फिर ये अदृश्य कण वापस अपनी साम्यावस्था में आने के लिए बार बार कोशिश करते है . क्यों ?
क्यों की निराकार शक्ति चैतन्य का गुण रखती है. और इसी गुण के कारण यही शक्ति तीन प्रकार की शक्तियों का सृजन करती है :
निर्माण की शक्ति (ब्रह्मा की शक्ति )
सुरक्षा की शक्ति (विष्णु की शक्ति )
परिवर्तन की शक्ति (शिव की शक्ति )
इसलिए सबसे पहले निराकार से ब्रह्मा प्रकट होते है और श्रष्टि के रूप में एक अदृश्य सूक्ष्म कण का सृजन करते है और फिर निराकार शक्ति इसे खुद में वापस मिलने से रोकने के लिए विष्णु को प्रकट करती है जो इस सूक्ष्मतम कण की सुरक्षा करती है . अब ब्रह्मा को निराकार परमात्मा ने निरंतर सृजन करने का कार्य दे दिया है इसलिए ब्रह्मा अब दूसरे कण का निर्माण कर देते है . अब कैसे इन दो कणों को आपस में बांधकर रखना है इसके लिए इन दोनों कणों में परिवर्तन की शक्ति के माध्यम से ऐसा ज्ञान(प्रेम तत्व) भरते है की ये दोनों कण आपस में एक दूसरे से इस प्रकार से चिपक जाते है जैसे कभी अलग थे ही नहीं . अर्थात ऊर्जा के दो कण शिव की शक्ति के कारण परिवर्तित होकर एक कण में बदल जाते है . और फिर धीरे धीरे तीनो शक्तियाँ इस प्रकार से अपना कार्य करती है की एक साकार रचना का निर्माण होने लगता है . अर्थात परमात्मा की चेतना ही साकार रूप में प्रकट हो रही है . जिसे आइंस्टीन ने ‘ऊर्जा को द्रव्यमान में बदला जा सकता है’ का नियम दिया था . अर्थात e=mc2 .
आइंस्टीन ने यह कहाँ था की ऊर्जा (परमात्मा की शक्ति) ही द्रव्यमान में बदलती है . इसे ही आध्यात्मिकता ‘परमात्मा को साकार रूप में कैसे प्रकट करे’ कहती है .
क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया इसलिए होती है की हर वस्तु अपने अस्तित्व की रक्षा चाहती है क्यों की हर वस्तु में विष्णु जी छिपकर बैठे है . इसलिए एक पत्थर में भी तीनों शक्तियाँ हर समय विध्यमान रहती है . बहुत ही सूक्ष्म रूप में पत्थर में निरंतर तीनों प्रकार के परिवर्तन हो रहे है और जब इस पत्थर का जीवन चक्र समाप्त होने लगता है तो यही पत्थर मिट्टी में बदल जाता है .
पर क्या हमने कभी यह सोचा है की यह पत्थर अचानक मिट्टी में कैसे बदल गया है ?
नहीं .
यह तो हमे बहुत समय बाद एक दिन अचानक देखने से लगता है . वास्तविकता में तो इसमें रूपांतरण की क्रिया अभी भी जारी है . अर्थात अब यही मिट्टी किसी अन्य रूप में बदल जाएगी .
इसलिए हम खुद भी निरंतर बदल रहे है . बचपन , जवानी , बुढापा फिर से बचपन , जवानी , बुढ़ापा .
अर्थात हमारे भीतर क्रिया फिर प्रतक्रिया , फिर क्रिया फिर प्रतिक्रिया इसी से हमारा जीवन चक्र चल रहा है . यदि ऐसा न हो तो फिर श्रष्टि में रचनात्मक कार्य नहीं होंगे और जिस तरह ठहरा हुआ पानी सड़ने लगता है ठीक उसी प्रकार यदि हम निरंतर क्रियायोग ध्यान का अभ्यास नहीं करेंगे तो फिर हम भी सड़ने लगेंगे . इसीलिए तो परमहंश योगानंद जी का मृत शरीर लगभग बीस दिनों तक ऐसे ही एक स्वस्थ शरीर की तरह सुरक्षित था . क्यों की वे हरपल ध्यान की अवस्था में थे . इसलिए उनके शरीर में उनके शरीर छोड़ने के बाद भी शरीर को सड़ाने क़े लिए प्रकृति जो बैक्टीरिया वायरस पैदा करती है उनको पैदा नहीं किया . क्यों ?
क्यों की परमहंस योगानंद जी का शरीर उनके शरीर छोड़ने से पहले ही दिव्य शरीर में बदल गया था .
इसीलिए यदि हम भी बीमारियों से मुक्ति चाहते है तो फिर हमे इन क्रिया और प्रतिक्रिया क़े नियमों को गहराई से समझना बहुत जरूरी है . अर्थात हमे कोई यदि गाली दे तो हमे प्रतिक्रिया क़े रूप में गाली नहीं देनी चाहिए बल्कि अपनी समझदारी का परिचय देना चाहिए . अर्थात सत्य और अहिंसा का पालन करना चाहिए . इसी में हम सब का कल्याण है . अभी हमारा मन इस स्थिति में नहीं है की हम अत्याचार आसानी से सहन कर जाय . पर यदि हमे पूर्ण सत्य को जानना है तो फिर गाली देने वाले को भी खुद से अलग मानने की गलती नहीं करनी है . अर्थात हाथ में फोड़ा हो जाए तो उसे काटकर नहीं फेकना चाहिए बल्कि उसकी जड़ को ही स्वास्थ्य में बदलने की कला सीखनी चाहिए .
इसलिए प्रतिक्रिया तभी विरोध में देनी चाहिए जब सामने वाला हमारे को खुद क़े जैसे अमानवीय कृत्यों को हमारे माध्यम से कराने की कोशिश कर रहा हो . अर्थात यदि हमे कोई भी सत्य और अहिंसा क़े मार्ग से भटकाने की कोशिश करे तो फिर हमे हमारी पूरी क्षमता क़े साथ इसका विरोध करना चाहिए . क्यों की ऐसा विरोध वास्तविक रूप में विरोध नहीं होता है बल्कि नए रचनात्मक कार्य क़े लिए उठाया गया शत प्रतिशत प्राकृतिक कदम होता है .
इसलिए तो परमात्मा ने क्रिया करके मन का सृजन किया और फिर प्रतिक्रिया क़े रूप में शरीर प्रकट हो गया . यदि यह प्रतिक्रिया नहीं होती तो निर्मित हुआ मन वापस निराकार में मिल जाता . और जैसे ही शरीर प्रकट हुआ तो फिर एक प्रतिक्रिया हुयी जिससे इन्द्रियाँ प्रकट हुयी . और फिर जैसे ही प्रतिक्रया हुयी तो विषय प्रकट हुए . इसलिए यदि बहुत समय तक हम आँखों को बंद रखेंगे तो फिर धीरे धीरे देखने की क्रिया ठीक से सम्पादित नहीं होगी . इसलिए हमारे प्यारे परमात्मा ने दिन और रात की रचना की है ताकि हम दिन में देख सके और रात को आँखों को आराम दे सके .
धन्यवाद जी . मंगल हो जी .