क्यों की इसका कारण हम खुद होते है . हमारे भीतर गहराई में यह भाव होता है की मै खुश हूँ क्यों की मेने बहुत अच्छा काम किया है और सामने वाले ने मेरे जितना अच्छा काम नहीं किया है .
हमारे भीतर ‘मै खुश हूँ क्यों की मेने बहुत अच्छा काम किया है ‘ यह भाव तो ठीक है पर ‘सामने वाले ने मेरे जितना अच्छा काम नहीं किया है’ यह भाव हमारे भीतर अहंकार को दर्शाता है . क्यों की यहां हमने तुलना कर दी . अर्थात एक अच्छा है और दूसरा अच्छा नहीं है . और तुलना हमेशा हमारी बुद्धि करती है जो अभी सही गलत की पहचान करना नहीं जानती है क्यों की अभी हमारी बुद्धि पूर्ण रूप से जाग्रत नहीं है . अभी इसकी अवचेतन मन के साथ ही मित्रता है . हमारे भीतर अहंकार भाव का जन्म होना एक प्राकृतिक क्रिया है . पर जब हमारा अहंकार भाव संतुलित नहीं रहता है तो फिर यह झगड़ा कराता है . बिना अहंकार के तो हम खड़े भी नहीं हो सकते . पर जब यही अहंकार इतना बढ़ जाए की हमें यह होश ही न रहे की अब हम सामने वाले के सिर के ऊपर खड़े होने की कोशिश कर रहे है . तो यह लाजमी है की सामने वाला हमारे को उसके सिर पर नहीं चढ़ने देगा .
अभी हम ही खुद किसी को हमारे सिर पर कभी नहीं चढ़ने देंगे . और आप ने कई बार बोलचाल की भाषा में भी सुना होगा की ‘ज्यादा सिर पर मत चढ़’ या ‘आप ने इसको सिर पर चढ़ा रखा है’ .
इसलिए जब भी हम बहुत ज्यादा खुश होते है और सामने वाला हमसे जलता है या ईर्ष्या करता है तो फिर हम क्या करे ?
उस समय हमे यह समझना पड़ेगा की हम कुछ ज्यादा ही खुश हो रहे है यदि ऐसा ही व्यवहार कभी सामने वाला हमारे साथ करे तो क्या हम उसकी ख़ुशी में खुश हो जायेंगे ?
हमारा मन तुरंत कहेगा जी बिलकुल . हम तो आज तक किसी की ख़ुशी को देखकर कभी भी नहीं जले . पर मन का यह जवाब एक धोखा मात्र है . जब हम गहराई से सोचेंगे पूरी तरह जाग्रत होकर के तो भीतर से आष्चर्यचकित करने देने वाले जवाब आएंगे . हमारे भीतर भी सामने वाले की तरह ईर्ष्या के भाव जन्म लेते है . क्यों की यह सब प्राकृतिक घटनाएं होती है . जब हम क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास करते है तो इसका स्थायी समाधान हमे मिलने लगता है .
हर बार या हर व्यक्ति के लिए यह बात समान रूप से लागू नहीं होती है . क्यों की यदि हम सभी राग और द्वेषो को भूलकर सामने वाले से भी उतना ही सच्चा प्रेम करते है जितना खुद से तो फिर हमारे को खुश देखकर सामने वाला कभी भी नहीं जलेगा बल्कि वह भी उतना ही ज्यादा खुश हो जायेगा जितना हम . और इस प्रकार से हमारी ख़ुशी दुगुनी हो जाएगी . यह चमत्कार होता है क्रियायोग ध्यान के अभ्यास से. हम खुद ही वहम कर कर के लोगों के बारे में राय बना लेते है और फिर ये लोग जैसा हम सोचते है वैसा ही व्यवहार हमारे साथ करते है . अर्थात जैसी हमारी भावना होगी हमारे को लोग वैसे ही मिलेंगे .
अब हम इस का विज्ञानं के आधार पर जवाब देने जा रहे है की ईर्ष्या का भाव क्यों पैदा होता है ?
क्यों की क्रिया के प्रति विपरीत क्रिया अवश्य होगी परिणाम के रूप में . अब विपरीत क्रिया किस प्रकृति की होगी यह निर्भर करता है क्रिया के भीतर छिपे भावो की प्रकृति पर .
जैसे हम बहुत ज्यादा खुश है तो इसका मतलब हमारे शरीर में हर सेल दूसरे सेल से मित्रता के भाव के साथ जुड़ा हुआ है और इसीलिए हम पुरे दिल से खुश हो पा रहे है ना की आधे अधूरे मन से .
और सामने वाले व्यक्ति के शरीर में यदि हमारे खुश होने के समय सेल एक दूसरे से प्रेम के भाव से बहुत अच्छी तरह नहीं बंधे हुए है तो फिर हम यह कैसे उम्मीद कर सकते है की सामने वाला इंसान आप को खुश देखकर खुद भी खुश हो जायेगा .
अर्थात हो सकता है अभी सामने वाला व्यक्ति किसी ट्रोमा से गुजर रहा हो .
जैसे अभी हम तो इसलिए बहुत खुश है की हमारे नयी पत्नी आ गयी है और हम चले गए किसी ऐसे व्यक्ति के सामने जिसकी बहुत अच्छी पत्नी अभी अभी उसे छोड़कर चली गयी है . तो फिर यह कैसे संभव हो की आप को खुश देखकर पत्नी को गवाने वाला भी खुश हो जाए .
अर्थात उसके शरीर के परमाणुओं के बीच अभी प्रतिकर्षण बल कार्य कर रहा है . उसका शरीर अभी खुद के परमाणुओं में ही एकता स्थापित नहीं कर पा रहा है तो ऐसे परमाणु हमारे शरीर के परमाणुओं से आसानी से कैसे एकता स्थापित कर लेंगे .
इसका एक ही समाधान है पहले खुद से वास्तविक प्रेम करने का अभ्यास हमे निरंतर करना चाहिए और फिर सामने वाले व्यक्ति के गाल को इतना ही चूमना चाहिए की उसको सच्ची ख़ुशी मिले ना की उसको यह डर सताए की कही हम उसके गाल को काटकर खा जाए .
अर्थात हमे खुश रहते समय समता भाव को नहीं खोना है . इसीलिए क्रियायोग ध्यान का अभ्यास हमारे समता भाव को पुष्ट करता है .
अगर सामने वाला हमे खुश देखकर जलेगा नहीं और हमेशा खुश ही रहेगा तो भी हमारे लिए खतरा है . क्यों ?
क्यों की फिर हमे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कोन करेगा . फिर हम जोश में होश खोने लगेंगे . इसीलिए यदि हम संसार से बुराई को पूर्ण रूप से मिटाने का संकल्प लेते है तो फिर एक दिन यही बुराई हमारे अस्तित्व को समाप्त कर देगी . इसलिए हम कहते है की देवता भी रहे और राक्षश . बैक्टीरिया वायरस भी रहे और हम भी , सुख भी रहे और दुःख भी . पर ये सभी समता भाव में रहे यदि हम हमारे अस्तित्व की रक्षा करना चाहते है तो . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .