यह बात सबके लिए समान रूप से सच नहीं है . पर ज्यादातर लोगों को भोग आसान और भक्ति कठीन लगती है .
क्यों की भोग का मतलब ऊपर से निचे गिरना और भक्ति का मतलब निचे से ऊपर उठना होता है .
ऊपर से निचे गिरने में आप की मदद गुरुत्वाकर्षण बल भी करता है और निचे से ऊपर उठने के लिए आप को आत्मशक्ति का प्रयोग करना होता है .
अब आप के संचित कर्मो के अनुसार आप की आत्म शक्ति अवचेतन मन में जमा स्मृतियों के निचे दबी हुयी होती है . जिस प्रकार के आप के संचित कर्मो का पैटर्न है उसी के अनुरूप आप की आत्म शक्ति परिवर्तित होती रहती है .
जैसे अभी आप किसी देव स्थान पर जाने का मानस बना रहे है तो आप की आत्म शक्ति जागने लगती है . और यदि आप की कोई सबसे प्रिय वस्तु खो जाए तो उस समय आप की आत्म शक्ति कम होने लगती है .
जैसे हमारे को यह पता चले की हमारे को अमुक प्रकार की बीमारी हो गयी है तो हमारी आत्म शक्ति अपने आप ही कम होने लगती है . और यदि हमारे को यह पता चले की हमारी एक असाध्य बीमारी अब धीरे धीरे ठीक हो रही है तो हमारी आत्म शक्ति अपने आप ही बढ़ने लगती है .
अर्थात जब हम सृजन की तरफ बढ़ते है तो हमारी आत्म शक्ति बढ़ती है . और जब हम विनाश की तरफ बढ़ते है तो हमारी आत्म शक्ति घटने लगती है .
भोग का मतलब परमात्मा से दूरी को बढ़ाना है और भक्ति का मतलब परमात्मा से एकता स्थापित करना होता है .
परमात्मा से दूरी को बढ़ाना आसान क्यों होता है ?
क्यों की इसमें संग्रह की गयी जमा पूँजी (प्राण शक्ति , जीवन शक्ति , या ऊर्जा ) खर्च होकर किसी ऐसे रूप में बदल जाती है जो रूप आप के लिए व्यर्थ होता है .
जैसे हम यह सोचने लग जाए की कैसे लोगों को मुर्ख बनाकर पैसा कमाया जाए . तो इसके लिए आप का मन आप को तुरंत हज़ार तरीके बता देगा .
और आप कोई भी तरीका अपना के लोगों को मुर्ख बनाकर पैसा कमाने लग जायेंगे . और फिर लोगों को मुर्ख बनाते बनाते एक समय ऐसा आएगा जब आप खुद ही मुर्ख बन जायेंगे . क्यों ?
क्यों की आप ने ऐसा करके अपने मन को यह प्रशिक्षण दिया है की कैसे भी करके लोगों को मुर्ख बनाओ और पैसा कमाओ .
अर्थात अब आप का मन इस प्रकार से तैयार हो चूका होता है की आप को माया सच्ची प्रतीत होने लगती है और अब आप की आत्मा लगभग पूरी तरह झूठ के पर्दो से ढक जाती है .
अब माया आप के सच्चे स्वरूप को ढक देती है और आप इस माया के चंगुल में फसकर अनेक प्रकार के अनैतिक कार्य करने लगते है . और फिर धीरे धीरे यही माया आप को खुद को मुर्ख बनाने लगती है . जिसके परिणामस्वरूप आप के बुद्धि और विवेक खोने लगते है . और ऐसा करके आप हर प्रकार से निचे गिरने लगते है . और फिर आप के माध्यम से किये गए हर एक अप्राकृतिक कर्म का परमात्मा की प्रकृति जवाब देने लगती है .
इसलिए भोग (मजे) करना आसान लगता है . पर मजे की सजा भी आप को ही भोगनी पड़ती है .
पर जब आप सच्चाई के मार्ग पर चलकर पैसा कमाना शुरू करते है तो फिर आप को बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है .
क्यों ?
क्यों की झूठ के अनेक मार्ग है पर सच्चाई का केवल एक ही मार्ग है . और वह मार्ग यह है की आप शत प्रतिशत यह स्वीकार करे की आप के सुख और दुःख का जिम्मेदार आप खुद ही है .
और इसे स्वीकार करने के लिए आप को बहुत बड़ी आत्म शक्ति की जरुरत होती है .
क्यों की यदि आप इस पूरे जगत में किसी अमुक प्रकार की गलती का जिम्मेदार कौन है इसका पता लगाने निकलेंगे तो आप को इस पूरे जगत में ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो यह स्वीकार करेगा की हां यह गलती मेने की है . क्यों की ऐसा करने से उसका अहंकार मरता है . अर्थात वह खुद नष्ट होने लगता है . यह पूरा संसार अहंकार से ही प्रकट हो रहा है .
इसलिए भक्ति का अर्थ होता है अपने अहंकार पर विजय प्राप्त करना . अर्थात सच्चाई के मार्ग पर चलने का मतलब तलवार की धार पर चलना होता है .
आप अनंत जन्म लेलो पर आप को परमात्मा केवल सच्चाई के मार्ग पर चलने पर ही प्राप्त होंगे .
इसलिए निरंतर क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास करने का प्रयत्न करे .
भक्ति का अर्थ आप के मन और शरीर के बीच दूरी को घटाना होता है . जैसे जैसे आप मन को शरीर पर लायेंगे तो इसमें कई प्रकार के परिवर्तन होंगे . जैसे चक्कर आना , जी मिचलाना , उल्टी आना , घबराहट होना , शरीर के किसी अंग में दर्द होना ऐसे अनेक प्रकार के परिवर्तन जो आप के मन को अच्छे नहीं लगते है आप के अहसास में आते है .
ठीक इसी प्रकार से मन क़ो शरीर पर लाने पर अनेक प्रकार के ऐसे परिवर्तन भी होते है जो आप के मन क़ो बहुत अच्छे लगते है . जिससे आप का मन धीरे धीरे शांत होने लगता है .
जैसे आप कोई मंत्र जाप करते है तो धीरे धीरे आप का मन शांत होने लगता है . पर जब कोई नया व्यक्ति पहली बार मन्त्र जाप शुरू करता है तो उसका मन अशांत होने लगता है क्यों ?
क्यों की भक्ति आप के मन क़ो निर्मल करने का काम करती है . इसलिए आप के मन में जो भी विकार स्मृतियों के रूप में जमा है वे सभी विकार अब धीरे धीरे निर्मलता में परिवर्तित होने लगते है . इसलिए भक्ति से आप का मन और फिर मन से आप का शरीर बदलने लगता है . इसीलिए अनेक साधु संतो का शरीर भक्ति से शुरू में हड्डियों के ढांचे में बदल जाता है और फिर धीरे धीरे वे इसे नए शरीर में बदलने का ज्ञान प्राप्त करने लगते है .
जब उनको लगता है की उन्हें कितने नये शरीरो की आवश्यकता है वे उतने ही नये शरीर बना लेते है . और जब उनको लगता है की अब इस अमुक शरीर को अदृश्य करना है तो वे इसे अदृश्य कर देते है .
अर्थात भक्ति से माया आप के अधीन हो जाती है और भोग से आप माया के अधीन हो जाते है .
अर्थात भोग से आप झूठ के मार्ग पर आगे बढ़ते है जिसके अनेक मार्ग है इसलिए वह आप को आसान लगता है और भक्ति से आप सच को पकड़ने लगते है और इसका केवल एक ही मार्ग है परमात्मा के आगे समर्पण करना अर्थात अपने आप को स्वीकार करना (सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना). इसके लिए आप क़ो अपने मन से सभी प्रकार के विकारों क़ो बाहर निकालना होता है . अर्थात अपने मन और शरीर का ऑपरेशन करना होता है . इसलिए इस ऑपरेशन के दौरान आप के मन और शरीर में जमा अनंत जन्मों की बीमारियाँ बाहर निकलती है जो राजी राजी बाहर नहीं आना चाहती है .
क्यों ?
क्यों की विष्णु शक्ति जिस प्रकार से स्वास्थ्य की रक्षा करती है उसी प्रकार से बीमारी की भी रक्षा करती है . इसलिए भक्ति में आप क़ो शिव की शक्ति क़ो जगाना होता है . इसे ही तप कहते है .
धन्यवाद जी . मंगल हो जी .