क्या मन और शरीर दो अलग अलग भाग है ?

नहीं . शरीर मन का ही घनीभूत रूप है .

अर्थात निराकार प्रकाश कण कण में व्याप्त रहते हुए भी दृश्य जगत के रूप में प्रकट हो रहा है . परमात्मा की इसी क्रिया के कारण समय , दूरी और द्रव्यमान प्रकट हो रहे है . वास्तविकता में समय , दूरी और द्रव्यमान का अस्तित्व ही नहीं होता है . ये तीनों ही परमात्मा की छाया है . अर्थात मन हमारे प्यारे प्रभु की छाया मात्रा है . इसलिए पूरा संसार प्रभु की छाया है . पर याद रखे यह छाया ऐसे ही गायब नहीं हो जाती है . बल्कि इस छाया के रूप में खुद परमात्मा विराजमान है . इसीलिए महान संत कहते है की जीव जीव भगवान है.

अर्थात हमे मन को छाया की तरह आसानी से समय के साथ समाप्त होने वाली वस्तु मानने की गलती नहीं करनी है . अर्थात मन को चुनौती नहीं देनी है . मन खुद भगवान ही है . पर यह समझना बहुत ही गहरा विज्ञान है .

मन को वश में करने का मतलब भगवान को वश में करना होता है . इसलिए हमे  इस शरीर और मन को पूरा सम्मान देना बहुत जरुरी है यदि हम मन और शरीर को वास्तविक रूप में समझना चाहते है तो .

निराकार शक्ति खुद के ज्ञान को अनेक रूपों में व्यक्त करने के लिए पहले मन को प्रकट करती है जो कण कण में व्याप्त होता है . अर्थात मन भी सर्वव्यापी होता है . फिर यही मन आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों के कारण शरीर अर्थात दृश्य रूप में भी बदलता है और साथ ही अदृश्य रूप में भी व्याप्त रहता है .

इसे ऐसे समझे :

निराकार प्रकाश हमारे भौतिक शरीर के रूप में संघनित हो रहा है और निरंतर यह शरीर पुरे ब्रह्माण्ड से आकर्षण और प्रतिकर्षण बलों की अनुभूति कर रहा है . जिसे ही ज्योतिष विज्ञानं की भाषा में हमारे शरीर पर ग्रहों का प्रभाव पड़ना‘ कहते है .

इसीलिए तो हमे कभी मौसम प्रभावित करता है तो कभी भोजन या कभी अन्य प्रकार के परिवर्तन .

निराकार शक्ति के द्वैत प्रकृति के गुण के कारण ही हमे यह आभास होता है की मेरा शरीर अलग है और मेरा मन अलग है . पर मन की हर एक गतिविधि हमारे शरीर पर किसी न किसी रूप में प्रभाव डालती ही है . क्यों की दोनों एक ही है पर अभी हमारी चेतना का स्तर इतना ऊंचा नहीं है की हम इसे बहुत ही आसानी से अनुभव कर सके . इसलिए यदि हम इस शरीर को नश्वर समझेंगे तो फिर हमने यह कहाँ स्वीकार किया है की कण कण में परमात्मा है .

एक तरफ तो हम कहते है की जीव जीव भगवान है और फिर उसी भगवान को हम नश्वर कहते है . ऐसा क्यों ?

क्यों की परमात्मा हमारा माया से मोह भंग करने के लिए हमारे माध्यम से ही ऐसा कहते है ताकि हम इस शरीर को वास्तविक रूप में समझे . अर्थात हमारा शरीर भोग विलास के लिए नहीं निर्मित हुआ है बल्कि नयी रचनाओं के सृजन के लिए इसका परमात्मा निर्माण कर रहे है . और परमात्मा के हमारे शरीर के माध्यम से निरंतर सृजन कार्यो के कारण ही हमे मन और शरीर में सुख दुःख की अनुभूति होती है . और हम हमारी अज्ञानता के कारण इनसे राग द्वेष कर बैठते है और फिर अधोगति की तरफ बढ़ जाते है .

इसीलिए हमारे शरीर में लगने वाली हर चोट यही कह रही है की आओ आओ मेरे प्यारे बच्चे किधर जा रहे हो . अर्थात जब हम यूनिवर्स से अलाईन हो जाते है मतलब परमात्मा से एकता स्थापित कर लेते है तो फिर हमे बीमारियाँ नहीं घेरती है , सुख दुःख परेशान नहीं करते है , हम फिर शरीर और मन से ऊपर उठ जाते है और फिर मन और शरीर का सच्चे रूप में सम्मान करना सीखते है .

इसलिए जब क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास करते है तो वास्तविकता में हम शरीर और मन के बीच दूरी को घटा रहे होते है . और इसी दूरी के घटने के कारण हमारे शरीर में कई प्रकार के परिवर्तन होते है जिनसे हम घबरा जाते है और फिर क्रियायोग को बदनाम करने की गलती कर बैठते है . इसीलिए क्रियायोग ध्यान साधना किसी पारंगत गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए जिसने खुद ने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया हो . और यदि पारंगत गुरु ना मिले तो फिर कण कण में व्याप्त परमात्मा के समक्ष पूर्ण विश्वास और सच्ची श्रद्धा और भक्ति के साथ समर्पण कर देना चाहिए .

क्यों की विश्वास ही परमात्मा को पाने का आधार है .

फिर हम यह क्यों कहते है मन अलग है और शरीर अलग है ?

क्यों की अभी हम वास्तविक रूप में जाग्रत नहीं है . अभी तो हम अहंकार के कारण जागने का केवल नाटक कर रहे है . वैसे भी सभी व्यक्ति यह बात नहीं कहते है .

हम शरीर को नश्वर क्यों मानते है ?

क्यों की अभी हम माया में इतने गहरे फसे हुए है की जिस वस्तु को भी देखते है उसे ही सच मान लेते है . अभी हम जाग्रति के साथ देखते ही नहीं है .

जब हम हर क्रिया को जाग्रत होकर समझने का प्रयास करते है तो फिर हमे इसी शरीर में प्रभु का रूप दिखने लगता है .

जैसे कभी आप किसी ऐसे व्यक्ति से निश्वार्थ प्रेम करने का अभ्यास करके देखना जिसे आप अभी नापसंद करते हो . तो कुछ दिनों बाद आप को चमत्कारिक परिणाम देखने को मिलेंगे .

वह व्यक्ति अब आप के लिए कटुता धीरे धीरे समाप्त कर रहा होता है .

इसे ही महान संतो ने आशीर्वाद की भावना , खुश रहो , सुखी रहो की भावनाओं के रूप में समझाया है .

और यह प्रेम केवल व्यक्ति के ऊपर ही प्रभाव नहीं डालता है बल्कि आप यदि किसी पेड़ , या किसी पशु को भी देंगे तो वह पशु भी आप को प्रेम करने लगेगा और खिलने लगेगा .

इसलिए जब भी आप के मन में नकारात्मक विचार आने लगे तो तुरंत सतर्क हो जाए और पहले यह स्वीकार करे की आप परमात्मा से दूरी बढ़ाने लग गए थे और इस कारण ही आप के मन में शरीर नश्वर है , यह दुनिया बुरी है , यहाँ कोई किसी का सगा नहीं है ऐसे अलगाव के विचार आप के मन में आ रहे है और आप एक बार फिर परमात्मा को पाने से चूक जायेंगे .

हां वो बात अलग है यदि आप निराकार की साधना कर रहे है तो  फिर आप को परमात्मा के साकार रूप से जुड़ने की जरुरत नहीं है . पर याद रखे फिर यदि आप कही गिर जाओ या शरीर में किसी प्रकार का रोग आ जाए तो फिर आप को परेशान बिलकुल नहीं होना है . क्यों की अब आप इस मन और शरीर रुपी रचना में बँधकर नहीं रहना चाहते है . इसलिए अब आपको इसकी परवाह करने की जरुरत नहीं है . यदि निराकारी साधक को आज भोजन भी नहीं मिले तो फिर इसकी उसको शिकायत नहीं होनी चाहिए .

इसे निम्न उदाहरण से आसानी से समझ सकते है :

जैसे कुछ संत अपनी कुटिया के पास झाड़ू भी नहीं निकालते है और किसी और को भी नहीं निकालने देते है . क्यों की उनका मानना है की झाड़ू से जीव मरते है . और गन्दगी से उनका कोनसा नुकसान हो रहा है . उनके कोनसे बच्चे बीमार होंगे , उन्होंने तो खुद के मन को मिटाने की तैयारी कर ली है .

पर यदि आप एक गृहस्थ साधक है और आप साकार की साधना करते है तो फिर आप को झाड़ू लगानी पड़ेगी . नयी तो गन्दगी में छिपे सूक्ष्म जीव आप और आप के बच्चो को काटने लग जायेंगे .

इसलिए हमे क्रियायोग ध्यान मन और शरीर के पीछे छिपे वास्तविक सत्य से रूबरू कराता है . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .

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