किसी भी भाषा का आविष्कार कैसे होता है ?

भाषा का निर्माण
भी हमारा मन ही करता है . जैसे एक नवजात शिशु जन्म के साथ एक भाषा कोड लेकर पैदा
होता है जो मेडुला में डीएनए के रूप में जमा रहता है . अब यह निराकार शक्ति तय
करती है की इस शिशु को जीवन के रंग मंच पर क्या रोल अदा करना है . इसी डीएनए
कोडिंग के अनुसार इसे माता पिता मिलते है
, रिश्तेदार मिलते है , पड़ोशी मिलते है , समाज मिलता है . अब यदि आप की भाषा में टमाटर को एक फल माना गया है तो यह
जरुरी नहीं है की किसी अन्य भाषा में भी इसका अर्थ फल ही हो . हो सकता है की वहा
टमाटर का अर्थ पानी पिने की क्रिया हो . ठीक इसी प्रकार से भाषा में भावों को भी
प्रवेश कराया जाता है . जैसे रसगुल्ला बोलने पर उस व्यक्ति के मुँह में ही पानी
आयेगा जिसका शरीर तंत्र मन के माध्यम से इस प्रकार से रचा गया हो की उसके मुँह में
स्थित लार ग्रंथियाँ स्त्रावित होने लग जाए . अर्थात रसगुल्ला शब्द ऐसे व्यक्ति के
मन में इस प्रकार से प्रोग्राम किया गया है की पहले तो रसगुल्ले को बनाया गया है
और फिर आँखों के माध्यम से इस व्यक्ति को दिखाया गया है और फिर जीभ के माध्यम से
इसे चखाया गया है . पर पहली बार जब इस व्यक्ति के मन को स्वाद अनुभव करने का ज्ञान
नहीं था तो दूसरा व्यक्ति इसको पहले रसगुल्ला खिलाता है और फिर अपने खुद के चेहरे
को अलग अलग भावों के साथ इसके सामने प्रकट करता है . तो इस क्रिया से जो प्राण
ऊर्जा चेहरे के रूप में एक फिल्म का रूप ले लेती है
, इसी फिल्म को रसगुल्ला खाने वाले व्यक्ति के मन
का प्रोग्राम खुद में अवचेतन मन के रूप में निर्मित कर लेता है
. जैसे बकरी के बच्चे को यदि पैदा होते ही
शेरों के झुंड में छोड़ देंगे तो वह बकरी बड़ी होकर शेर जैसा व्यवहार करने लगेगी .

इसीलिए कहते है
जैसी संगत वैसी रंगत . और इसी कारण से हम किसी जगह बहुत अच्छा महसूस करते है और
किसी अन्य जगह हमें घबराहट महसूस होती है . क्यों की वहा की ऊर्जा नकारात्मक होती
है .

इसलिए यदि आप को
बीस भाषाएँ आती है पर प्रेम की भाषा आप को नहीं आती है तो फिर आप का मन शांत नहीं
रह पायेगा . इसीलिए व्यक्ति को निरंतर सीखते रहना चाहिए परन्तु इस भाव के साथ की
मै कुछ भी नहीं सीख रहा हूँ बल्कि हमारे परम पिता इस मन के माध्यम से भाषा का
ज्ञान प्रकट कर रहे है .

यदि आप विज्ञान
के छात्र है तो आप को पता होगा की पदार्थ के अणुओं में लगातार टक्कर होती रहती है
.और यही टक्करें भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के पीछे भावों के रूप में
प्रकट होती है . जब आप क्रियायोग ध्यान का अभ्यास गहराई से करने लगते है तो फिर
कोई भी भाषा आप आसानी से सिखने लगते है . जैसे
रोटी बनाने के लिए आटा
, नमक , पानी
की आवश्यकता होती है ठीक इसी प्रकार से दो मनो को आपस में बातचीत करने के लिए एक
समान भाषा की जरुरत होती है .

एक छोटे शिशु के
अवचेतन मन को उसके परिजन भाषा का ज्ञान रोटी खिलाते हुये
, पानी पिलाते हुए , स्नान कराते हुए और ऐसे अनेक तरीको से सिखाते है . और बाद में वही शिशु बड़ा
होकर उस भाषा में इस प्रकार से बोलने लगता है जैसे कई जन्मों से वह यही भाषा बोल
रहा हो . और फिर उसका अवचेतन मन इतना मजबूत हो जाता है की यदि हम उसको कहे की आप
यह भाषा भूल जाओ. तो वह उस भाषा को आसानी से भूल नहीं पाता है . क्यों की निरंतर
उसी भाषा में रमे होने के कारण उसके शरीर के एक एक अंग में उस भाषा के प्राण कण
मौजूद है .

इसलिए यदि कोई
बंदर आप से कहे की मै भी इंसान हूँ तो आपको आश्चर्य चकित होने की जरुरत नहीं है .
क्यों की यह सब हमारे प्रभु ही हमारे को सीखा रहे है . आप ने भी सुना होगा की कई
बार हम कहते है की हम बंदर के वंशज है . इसका वास्तविक अर्थ यह है की हम सभी जीव
एक दूसरे में इस प्रकार से गुथे हुए है जैसे धागे को गूथकर कपड़ा बनाया जाता है .

इसलिए
यदि हमे मन की शांति चाहिए तो हमे इस प्रकार की बहस में कभी नहीं पड़ना चाहिए किसकी
भाषा श्रेष्ठ है और किसकी भाषा निम्न स्तर की है और हम किस जाती से है और किस योनि
से आये है . यदि हम इन सब के चक्कर में पड़ेंगे तो हम हमेशा बीमार रहेंगे . क्यों
की खुद परमात्मा यह सब खेल खेल रहे है हमे केवल इस खेल का आनंद लेना सीखना चाहिए .
और यह तभी संभव है जब हम प्रभु से जुड़ते है
. धन्यवाद जी . मंगल हो जी .

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