इस प्रश्न में ही
इसका उत्तर छिपा है . ‘हमारा मन‘
शब्द की अनुभूति करना ही हमारे विचार का
वास्तविक कारण है . विचार का मुख्य स्त्रोत अहंकार है . निराकार शक्ति जब
अपने ज्ञान को खुद के वास्तविक स्वरुप के अलावा दूसरे रूप में व्यक्त करती है तो
यह दूसरा रूप ही अहंकार है . अर्थात एको ब्रह्म दूसरा नाश्ति. पहला ब्रह्म और
दूसरा नष्ट होने वाला अहंकार . अर्थात विचार वास्तविक रूप में प्रभु की छाया है . जब
तक प्रभु की इच्छा होगी तब तक छाया रहेगी . अर्थात यह पूरी सृष्टि तब तक अस्तित्व
में रहेगी जब तक निराकार शक्ति की इच्छा होगी . जैसे हम इसे निम्न उदाहरण से आसानी
से समझ सकते है :
गेहूँ के दानों
को जब एक डिब्बे में बंद करके रख दिया जाता है तो कुछ समय बाद उनमे घुन लग जाता है
और गेहूँ के दानों का जीवन चक्र पूरा होकर गेहूँ नये रूप में बदल जाते है . तो अब
एक जिज्ञासु व्यक्ति के मन में विचार यह उठेगा की किसी के तो यह घुन बारह महीने लग
जाता है और किसी के छह माह में . ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिए होता
है की साधारण आँखों से तो हम गेहूँ की एक सिमित रचना ही देख पाते है पर वास्तविक
रूप में गेहूँ का हर एक दाना पुरे ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है . अर्थात हमारी तरह
गेहूँ भी सर्वव्यापी है . इसलिए इसके हर एक दाने पर अनंत प्रकार के प्रभाव लगातार
पड़ रहे है और किसी भी दो दानों पर पड़ने
वाला प्रभाव शत प्रतिशत समान नहीं होता है . इसलिए निराकार शक्ति में निरंतर हो
रहे कम्पनों के कारण विचार उत्पन्न होते है . अब विचार यह उठेगा की कम्पन क्यों
होते है . क्यों की यह शक्ति का एक वास्तविक गुण है जिसकी बदौलत ही हम इसे शक्ति
मान पाते है . जैसे पानी की प्रकृति ठंडी होती है और आग की प्रकृति गर्म होती है
ठीक इसी प्रकार निराकार शक्ति की अनंत प्रकार की प्रकृतियाँ होती है . सर्वप्रथम
विचार मन में नहीं आते है बल्कि एक विचार से ही पहले मन का निर्माण होता है . फिर
विचारों की श्रंखला इस प्रकार से चलती है जिससे हमारे अवचेतन मन , अचेतन मन और चेतन मन का निर्माण होता है . परम
चेतना से चेतना (आत्मा) विचार के कारण ही प्रकट होती है और फिर यही आत्मा परम
चेतना के कारण जीवात्मा में रूपांतरित हो जाती है . अर्थात वास्तविक रूप में आत्मा
भी परमात्मा की छाया मात्र है . तभी तो प्रभु बार बार यह कह रहे है की केवल मेरा
अस्तित्व है . मेरे अलावा कुछ भी नहीं है . जब आप क्रियायोग ध्यान का गहरा अभ्यास
करते है तो आप परमात्मा से एकता स्थापित करने में धीरे धीरे सफल होने लगते हो .
अर्थात आप की आत्मा के ऊपर जो माया की कालिख जमी हुयी है वह इस अभ्यास से पवित्र
होने लगती है . आप जिस प्रकार की आत्मा लेकर घूम रहे है आप के मन में उसी
प्रकार के विचार चलते रहते है . अब यदि प्रभु कृपा से आप मुक्ति की और बढ़ रहे है
तो फिर आप के मन में धीरे धीरे प्रेम , दया , करुणा , वात्सल्य जैसे
विचार आने लगेंगे और यदि अभी आप के संचित कर्मो का पैटर्न इस प्रकार से है की आप
के पास सभी प्रकार की सुख सुविधाएं है और आप का काम भी अच्छा चल रहा है पर फिर
भी मन में ऐसे विचार आयेंगे जो आपको
अधोगति की तरफ लेकर जायेंगे . परन्तु जब आप
क्रियायोग का अभ्यास हर परिस्थिति में निरंतर रूप से ख़ुशी के साथ करते है खुद को
शत प्रतिशत स्वीकार करते हुये तो प्रभु आप की और बहुत तेजी से दौड़ते हुये आते है
और आप के संचित कर्मो की गुत्थी को बहुत ही कम समय में सुलझा देते है और पहली बार
आप को सच्ची स्वतंत्रता की अनुभूति होती है . फिर आप को विचार प्रकट होते हुये
दिखते है और फिर यह शत प्रतिशत आप के नियंत्रण में हो जाता है की किस विचार से
क्या करना है . अर्थात प्रभु से जुड़ने के बाद कुछ भी असंभव नहीं रहता है . आप अमर
हो जाते है . आप की अनंत जन्मों की इच्छाएँ पूरी हो जाती है . इसलिए इस लेख को
पूरा पढ़ने के बाद पुरे ह्रदय से बोले जीव जीव भगवान है , सभी खुश रहो , सभी प्रेम से रहो . संसार में अमन और शांति हो . प्रकृति की रक्षा हो . धन्यवाद जी . मंगल हो जी .